Wednesday, March 30, 2016

मुझे चलते ही जाना है


मुश्किलों का पड़ाव है,
उमंगों का ठहराव है,
मैं चलूँ कैसे,
रुका हुआ हूँ,
ठहरा हुआ हूँ ।

मैं ठहर भी नहीं सकता,
पैरों में छाले हैं,
रास्ते पथरीले हैं,
कहीं काटें तो
कहीं दल-दल है ।

कहीं गहरी खाई तो
कहीं रपटीली चढ़ाई है,
पथ से होकर गुजरना है,
लक्ष्य के शिखर तक
पहुंचना है ।

हाथों में दीया है,
तूफानों का डेरा है,
मंजिल करीब है,
रात ढलने को है,
सूरज निकलने को है ।

इसलिए अब मैं,
टूट नहीं सकता,
झुक नहीं सकता,
कामयाबी के अंबर
चुमते जाना है,
कितनी ही तपती
रेत मिले
मुझे चलना है,
चलते ही जाना है ।

लेखक - सत्यम सिंह बघेल

Tuesday, March 8, 2016

महिला शक्ति खुद को पहचानो

 वर्ष की तरह इस वर्ष भी विश्व महिला दिवस पर शुभकामनाएं, जगह-जगह समारोह, बयानबाजी, बड़े-बड़े संकल्प व वादे और फिर स्थिति जस की तस। शक्ति स्वरूपा नारी शक्ति आखिर कब तक महज विचार-विमर्श की विषय-वस्तु बनकर रहेंगी, कब उपेक्षित होती रहेंगी, कब तक अपनी प्रतिभा की तिलांजलि देती रहेंगी, कब तक अपने हुनर के पर काटती रहेंगी, कब तक अपनी बौद्धिकता का हनन होते हुए देखेंगी, आखिर कब तक । क्यों खुद महिलाओं का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता कि समस्याएं उनकी हैं, चुनौतियां उनकी हैं, बात उनके अस्तित्व की है तो फिर पुरुष वर्ग कौन होते हैं उनको सशक्त बनाने वाले? आखिर महिलाएं क्यों खुद को कमजोर मानकर चार दीवारी के अंदर कैद होकर रह जाती हैं? क्यों अपने अधिकारों का हनन होने देती हैं? क्यों खुद अपनी दिशा-दशा तय नही कर पाती आखिर क्यों ? नारी शक्ति शक्तिशाली होते हुए क्यो खुद को असहाय महसूस करती हैं, क्यों अपनी प्रतिभा की पहचान नही पाती है ? आखिर क्यों ?  वाकई में यह विषय विचार-मंथन का विषय है मुख्यरूप से महिलाओं के लिए। 'मेरे हिसाब से महिला सशक्तिकरण को लेकर सोच बदलने की जरूरत है। आप उसे सशक्त बनाते हैं, जो कमजोर है। जिनके पास क्षमता है शक्ति है, उसे सशक्तिकरण की जरूरत नहीं। दुनिया की आधी आबादी के रूप मे मानी जाने वाली नारी शक्ति के प्रति सहयोगात्मक व्यवहार न अपनाते हुए उसे अधिकारों से वंचित रखने, उसे शोषित करने उसकी प्रतिभा को चार दिवारी के अंदर कैद करने, उसे खुद को कमजोर महसूस कराने में, हमेशा कम आंकने में कहीं ना कहीं पुरुष वर्ग ही जिम्मेदार है।
समाज में दोनों वर्गों का समान स्थान है, किन्तु
पुरुष वर्ग अब तक  महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार करता रहा और उनके अस्तित्व को कुचलता रहा है । उसे हमेशा कमजोर बनाता रहा और असहाय बताता रहा ।
ऐसा भी नहीं है कि स्थितियों में सुधार नहीं हुआ है, लेकिन समाज में एक तबके की महिलाओं की स्थिति अभी भी वैसी की वैसी ही बनी हुई है, आज हम देखते हैं कि शहर रहने वाली और गावों में रहने वाली महिलाओं के बीच, उनके अधिकारों, उनके कर्तव्यों को लेकर व्यापक अंतर है । समय आ गया है इस अंतर को समाप्त करने के लिए पुरुष, परिवार, समाज, सरकार के साथ-साथ खुद महिलाओं को निडर होकर आगे आने कि और साथ ही नारी शक्ति को अपनी प्रतिभा का परिचय देने की आवश्यकता है ।
सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्यप्रदेश