मुश्किलों का पड़ाव है,
उमंगों का ठहराव है,
मैं चलूँ कैसे,
रुका हुआ हूँ,
ठहरा हुआ हूँ ।
मैं ठहर भी नहीं सकता,
पैरों में छाले हैं,
रास्ते पथरीले हैं,
कहीं काटें तो
कहीं दल-दल है ।
कहीं गहरी खाई तो
कहीं रपटीली चढ़ाई है,
पथ से होकर गुजरना है,
लक्ष्य के शिखर तक
पहुंचना है ।
हाथों में दीया है,
तूफानों का डेरा है,
मंजिल करीब है,
रात ढलने को है,
सूरज निकलने को है ।
इसलिए अब मैं,
टूट नहीं सकता,
झुक नहीं सकता,
कामयाबी के अंबर
चुमते जाना है,
कितनी ही तपती
रेत मिले
मुझे चलना है,
चलते ही जाना है ।
लेखक - सत्यम सिंह बघेल
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