Sunday, July 30, 2017

राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम्' से आपत्ति क्यों ?

सत्यम सिंह बघेल (आलेख)

मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु के सभी स्कूल-कॉलेजों, सरकारी दफ्तर और संस्थानों में राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम्' गाना अनिवार्य करने का ऑर्डर दिया। अगर इसके संस्कृत और बंगाली भाषा में होने के चलते कोई परेशानी आए तो सरकार तमिल में अनुवाद करा इसे सभी सरकारी वेबसाइट्स पर अपलोड करे। सुनवाई के दौरान जज ने कहा- ''देशभक्ति हर नागरिक के लिए जरूरी है। सभी को समझना चाहिए कि देश मातृभूमि होती है। इसकी आजादी के लिए कई लोगों ने कुर्बानी दी है। 

जिसके बाद महाराष्ट्र के बीजेपी विधायक राज पुरोहित ने महाराष्ट्र में भी इस फैसले को लागू करने की मांग किये, उन्होंने कहा कि मैंने सीएम देवेंद्र फडणवीस से मुलाकात की है, हम चाहते हैं कि सीएम सभी के लिए वंदे मातरम् गाया जाना अनिवार्य करें। इसके बाद महाराष्ट्र सपा और एआईएमआईएम के नेता इसका विरोध किया। AIMIM के विधायक वारिस पठान ने कहा कि मैं वंदे मातरम् नहीं गाऊंगा, चाहे कोई मेरी कनपटी पर रिवाल्वर ही क्यों ना रख दे, किसी एक विचारधारा को हम पर थोपा नहीं जा सकता। मेरा धर्म (इस्लाम) और कानून इसे गाने की इजाजत नहीं देता है, हम विधानसभा में भी इसका विरोध करेंगे। दूसरी ओर, महाराष्ट्र के सपा नेता और विधायक अबु आजमी ने कहा, मैं राष्ट्रगीत नहीं गा सकता हूं, चाहे देश से बाहर क्यों ना निकाल दिया जाऊं, मैं इस्लाम का सच्चा फॉलोअर हूं, इसे गाना मेरे धर्म के खिलाफ है, कोई भी मुसलमान इसे कभी नहीं गाएगा।

यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये 'वन्दे मातरम्' नहीं। चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में व अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्'का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा 'वन्दे मातरम्' उच्चारण करने से 'माता की वन्दना करता हूँ' ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना उचित होगा।

सन् 2003 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग 7000 गीतों को चुना गया था और बी.बी.सी. के अनुसार 155 देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के 10 गीतों में दूसरे स्थान पर था।

1870 के दौरान अँग्रेज हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेज़ों के इस आदेश से बंकिमचंद्र चटर्जी को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत:1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्"। शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे। गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने 1881 में मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी', कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई, यानि तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है। काफ़ी समय बाद जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई उसके बाद यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। 1920 और ख़ासकर 1930 के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ।

अभी भी कुछ मुस्लिम नेता 'वन्दे मातरम्' का विरोध करते हैं। जबकि इस गीत के पहले दो बन्द, जो गाये जाते हैं उनमें कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है। पर इन लोगों का कहना है कि इस्लाम किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने को मना करता है और इस गीत में दुर्गा की वन्दना की गयी है, यह ऐसे उपन्यास से लिया गया है जो कि मुस्लिम विरोधी है, दो बन्द के बाद का गीत, जिसे कोई महत्व नहीं दिया गया, जो कि प्रासंगिक भी नहीं है में दुर्गा की अराधना है। राष्ट्रगीत के दो पदों में एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो इस्लाम के विरुद्ध हो। संस्कृत का'वन्दे' शब्द वंद धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ है, प्रणाम, नमस्कार,सम्मान, प्रशंसा और कुछ शब्दकोशों में पूजा-अर्चना भी लिखा हुआ है लेकिन लाखों वर्गमील में फैली भारत-भूमि की कोई कैसे पूजा कर सकता है? क्योंकि वह कोई व्यक्ति, मूर्ति, पेड़-पौधा, चित्र या मूर्ती नहीं है, उसे किसी मंदिर या देवालय में स्थापित नहीं किया जा सकता, कोई उसका अभिषेक कैसे करेगा, उसकी आरती कैसे और किस जगह करेगा, परिक्रमा कैसे लगाएगा? यहाँ मातृभूमि की वंदना का मतलब यह है कि अपने राष्ट्र के प्रति आस्था और सम्मान रखना। मातृभूमि की मूर्तिपूजा जैसी पूजा तो बिलकुल असंभव है लेकिन आस्था के रूप में यह मान लिया जाये कि मातृभूमि पूज्य है तो इससे तौहीद (एकेश्वरवाद) का विरोध कैसे हो सकता है ? क्या मातृभूमि अल्लाह की रकीब (प्रतिद्वंद्वी) बन सकती है ? मातृभूमि की जो पूजा करेगा, क्या वह यह मानेगा कि उसके दो अल्लाह हैं, दो ईश्वर हैं, दो गॉड हैं, दो जिहोवा हैं, दो अहोरमज्द हैं ? बिलकुल नहीं। दो ईश्वर तो हो ही नहीं सकते। यदि मातृभूमि पूज्य है तो ईश्वर परमपूज्य है। दोनों में न तो कोई तुलना है न बराबरी है। रही बात वन्दे मातरम् के उर्दू मतलब का, तो 'वन्दे' मतलब है, सलाम या तस्लीमात। कहीं भी 'वन्दे' शब्द को इबादत या पूजा नहीं कहा गया है। क्या किसी को भी सलाम करने कि इस्लाम में मनाही है? इसी तरह वन्दे मातरम् के अंग्रेजी में 'वन्दे' को 'सेल्यूट' कहा जाता है। उसे कहीं भी पूजा '(वरशिप)' नहीं कहा गया है। इसलिए वन्दे मातरम् को तौहीद के विरुद्ध खड़ा करना और उसे इस्लाम-विरोधी बताना बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं लगता। वन्दे मातरम् कभी किसी हिन्दू मंदिर या देवालय में नहीं गया जाता है, क्योंकि वह धर्मगीत नहीं राष्ट्रगीत है. इसीलिए राष्ट्रगीत को बुतपरस्ती से जोड़ने में कोई बुद्धिमानी दिखाई नहीं पड़ती। हर इस्लामी देश अपनी मातृभूमि का सम्मान करता है, आस्था रखता है, अपनी मातृभूमि प्रति श्रद्धा रखने का विरोध कोई इस्लामी देश नहीं करता है। अफगानी लोगों ने ही हमने 'मादरे-वतन' शब्द सिखाया, क्या वे लोग मुसलमान नहीं हैं? बांग्लादेश के राष्ट्रगान में मातृभूमि का उल्लेख चार बार आया है। क्या सरे बांग्लादेशी काफिर हैं? इंडोनेशिया, तुर्की और सउदी अरब के राष्ट्रगीतों में भी मातृभूमि के सौंदर्य पर जान अनुपम वर्णन है। क्या ये राष्ट्र इस्लाम का उल्लंघन कर रहे हैं? मातृभूमि कि वंदना पर हिन्दुओं का एकाधिकार नहीं है.इसे हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध सभी मानते हैं।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों को इस पर आपत्ति जताते हों। सच्चाई तो यह है कि वन्दे मातरम् का विरोध मुसलमानों ने नहीं मुस्लिम लीग ने किया था. जबकि उससे पहले इस गीत को हमारे स्वतंत्रता सेनानी आजादी की लड़ाई के दौरान लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए गाते थे। बंगाल के हिन्दुओं और मुसलमानों ने यही गीत एक साथ गाकर बंग-भंग का विरोध किया था, कांग्रेस के अधिवेशनों में मुसलमान अध्यक्षों की सदारत में यह गीत हमेशा लाखों हिन्दू और मुसलमानों ने साथ-साथ गया है, गाँधी के हिन्दू और मुस्लमान सत्याग्रहियों ने चाहे वे बंगाली हों या पठान, वन्दे मातरम् गाते-गाते अपने सीने पर अंग्रेजों की गोलियां खाएँ हैं. उस दौरान स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता से भयाक्रान्त हो उठी और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। सन् 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी सन् 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। सन् 1905 के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया। कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द ‘वन्दे मातरम्’ ही थे। सन् 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में ‘वन्दे मातरम्’ ही लिखा हुआ था। मौलाना आजाद से बढ़कर इस्लाम को कौन मुसलमान जनता था? उन्होंने स्वयं इस गीत को गाने की सिफारिश की थी।भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम जी ने हमेशा राष्ट्रगीत गाया और सम्मान किया। कुछ साल पहले विख्यात संगीतकार ए.आर. रहमान ने, जो ख़ुद एक मुसलमान हैं, वन्दे मातरम् को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था जो बहुत लोकप्रिय हुआ। मुस्लिम लीग को सिर्फ वन्दे मातरम् से ऐतराज़ नहीं था, हर उस चीज़ से उसे नफरत थी, जो हिन्दू और मुसलमान को जोड़े रखती थी। वर्तमान में मुस्लिम नेताओं द्वारा विरोध करना अधिकतर लोगों का मानना है कि यह विवाद राजनीतिक है और जो राष्ट्रगीत नहीं गाने का ऐलान कर रहे हैं, वे देशद्रोही नहीं बुद्धिद्रोही हैं।

राष्ट्रगीत का हिन्दी अनुवाद जिसे गाया जाता है-

वंदे मातरम्‌।- (हे माँ तुझे प्रणाम)  
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्‌-
सुजलाम- सुजल (पानी) से भरी हुई, सुफलाम्- फलों से भरी हुई, मलयज का मतलब है मलय (जो की केरल के तट का नाम है) मलयज शीतलाम से यहाँ मतलब ये है की हे माँ तुम, जिसे मलय से आती हुई शीतल हवा ठंडा करती है, कवि भारत माँ की विभिन्न विशिष्टताओं का वर्णन कर रहा है।

स्यश्यामलां मातरम्‌-                                   
सस्य का मतलब होता है उपज/खेती/फ़सल, श्यामला का मतलब श्याम से है अर्थात गेहरा रंग, पूरे वाक्यांश का मतलब ये है की हे माँ तुम जो फसल से ढकी रहती हो।

शुभ्रज्योत्‍स्‍नापुलकितयामिनीं (शुभ्रय+ज्योत्सना+पुलकित+यामिनी)-
शुभ्र-चमकदार, ज्योत्सना- चन्द्रमा की रौशनी(चांदनी), पुलकित- अत्यधिक खुश/रोमांचित, यामिनी-रात्रि, पूरे वाक्यांश का मतलब है- वो जिसकी रात्रि को चाँद की रौशनी शोभायमान करती है।

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं (फ़ुल्ल+कुसुमित+द्रुम+दल+शोभिनी)-
फ़ुल्ल- खिले हुए कुसुमित(फूल), द्रुम- वृक्ष, दल- समूह, शोभिनीं- शोभा बढ़ाते हैं, पूरे वाक्यांश का मतलब है- वो जिसकी भूमि खिले हुए फूलों से सुसज्जित पेड़ों से ढकी हुई है।

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं-                         
सुहासिनीं- सदैव हंसने वाली, सुमधुर भाषिनी- मधुर भाषा बोलने वाली

सुखदां वरदां मातरम्‌-                                 
सुखदां- सुख देने वाली, वरदां- वरदान देने वाली

वंदे मातरम्‌- (हे माँ तुझे प्रणाम)।

नीतीश कुमार की यथार्थवादी राजनीति

सत्यम सिंह बघेल (आलेख)

आखिरकार बिहार की राजनैतिक हवाओं में जिसकी महक थी वही हुआ। बुधवार शाम नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर महागठबंधन के टूटने का ठीकरा लालू और कांग्रेस पर फोड़ दिया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे RJD प्रमुख लालू यादव के बेटे और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगने के सवाल पर नीतीश ने कहा कि उन्होंने तेजस्वी से इस्तीफा नहीं स्पष्टीकरण मांगा था। उन्होंने कहा कि अगर वे (तेजस्वी और लालू) स्पष्ट कर देते तो हमें भी एक आधार मिल जाता। हमें लगा कि उनके पास जवाब नहीं है। ऐसे में हम सरकार चलाने की स्थिति में नहीं है इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया। यह पहला ऐसा मामला है जब किसी मुख्यमंत्री ने गठबंधन की सरकार के किसी अन्य सदस्य पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया हो, हालाँकि इतिहास में ऐसे कुछ और उदाहरण जरूर मौजूद हैं जब राजनेताओं ने अपने ऊपर लगे आरोपों के चलते या फिर अन्य मुद्दों पर खुद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा सौंपा हो। न्याय के साथ विकास का मूलमंत्र अपनाने वाले राजनीति के माहिर खिलाड़ी नीतीश कुमार राजनैतिक जोखिम लेने से कभी पीछे नहीं हटते, साल 2014 में भी एनडीए से अलग होने का जोखिम लिए थे और अब महागठबंधन की सरकार में मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर दिखा दिए कि वे साहसी राजनेता हैं, तभी तो लोग उन्हें राजनीति का चाणक्य भी कहते हैं। साल 2014 के जोखिम को तो यह कहकर समझा जा सकता है कि नीतीश ने राष्ट्रीय स्तर पर खुद की पहचान बनाने को लेकर वह जोखिम लिया था, लेकिन वर्तमान समय में तो उन्हें राजनीति का महारथी कहना ही उचित होगा। 2014 में एनडीए से अलग होने के नीतीश कुमार के फैसले में बड़ा जोखिम था। राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनैतिक भूमिका तलाशने में नीतीश ने ये जोखिम लिया। बिहार में महादलित के नए फॉर्मूले के साथ सोशल इंजीनियरिंग करके वो एक नया प्रयोग कर रहे थे। बिहार की दस करोड़ से ज्यादा की आबादी में 15 फीसदी हिस्सेदारी दलितों की है। दलित मुख्यतौर पर 22 जातियों में बंटे हैं। नीतीश ने इन जातियों में अत्यधिक पिछड़े 21जातियों को लेकर महादलित का एक नया वोटबैंक तैयार किया था। अपने इस वोटबैंक के लिए उन्होंने काम भी किए थे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उनके फॉर्मूले को फेल कर दिया, 2009 में 20 सीटें लेकर आने वाली जेडीयू 2014 में सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई। इस हार के बाद नीतीश कुमार के लिए नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशनी जरूरी हो गई, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक और बड़ा जोखिम लिया, लालू विरोध की जिस राजनीति के बूते उन्होंने बिहार की सत्ता पाई थी बदली परिस्थितियों में उन्हीं के साथ दोस्ती कबूल करनी पड़ी, आरजेडी से दोस्ती का रिस्क लेना इस बार कामयाब रहा, आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस के महागठबंधन को 178 सीटें मिली, आरजेडी (80 सीट) से कम सीटें (71 सीट) लाकर भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री और बिहार चुनाव के असली विजेता बने, लेकिन इस जीत के साथ भी एक अस्वाभाविक दोस्त को साथ लेकर शासन-प्रशासन चलाने पर सवाल बना रहा, नवंबर 2016 में बिहार में गठबंधन सरकार के सिर्फ एक साल हुए थे. लालू-नीतीश की नई-नई दोस्ती परवान चढ़ने से पहले ही पटरी से उतरती दिखाई पड़ रही थी, नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले की खुलकर तारीफ की थी, जिसके बाद उनके बीजेपी के करीब जाने के किस्से नमक-मिर्च लगाकर मीडिया के साथ ही आमजन में चर्चा का विषय बने हुए थे। तमाम तरह के कयास लगाए जाने लगे। धारणाएं बनाई जाने लगी कि लालू-नीतीश की दोस्ती मजबूरी की दोस्ती है जो ज्यादा दिन चल नहीं सकती, बिहार में बीजेपी-जेडीयू का दौर बेहतर था दोस्ती के नए समीकरण में कुछ भी सहज नहीं है, या 17 साल की दोस्ती निभाने वाली बीजेपी ही नीतीश की स्वभाविक सहयोगी हो सकती है लालू और उनकी पार्टी आरजेडी नहीं। दरअसल यही बड़ी मजबूत धारणाएँ हैं जो बिहार में पिछले दो सालों के दौरान कई वक्त में सच के इर्द-गिर्द दिखी है, मीडिया ही नहीं आमजन के बीच भी चर्चा का विषय थी।

नीतीश खुद को बेदाग दिखाने की कोशिश में जो कहते हैं वही वही करते भी हैं, पिछले दो साल के दौरान सिर्फ इस दोस्ती को कटघरे में रखकर नीतीश पर न जाने कितनी बार सवाल उछाले गए हैं, 2015 के बाद बिहार में घटी हर छोटी-बड़ी घटना को लेकर लालू-नीतीश की बेमेल दोस्ती पर सवाल उठे, फिर चाहे वो सीवान के पत्रकार का हत्याकांड हो या फिर जेल से आरजेडी के बाहुबलि नेता शहाबुद्दीन और लालू यादव के बीच फोन पर बातचीत का खुलासा, नीतीश हर बार कानून सम्मत उपाय निकालकर अपनी साफसुथरी छवि और लालू यादव से अपनी दोस्ती की मर्यादा निभाते रहे, लेकिन हाल में लालू यादव के परिवार के खिलाफ बेनामी संपत्ति हासिल करने के आरोप लगे. बेटे, बेटियों के साथ दामाद भी इस घेरे में आए, भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लालू परिवार के साथ ने जिस तरह से उनकी बेदाग छवि को प्रभावित करना शुरू किया. काजल की कोठरी में रहकर खुद को बेदाग रख पाना आसान नहीं था, इस बदली राजनीतिक परिस्थिति ने नीतीश को एक बार फिर से बड़ा जोखिम लेने पर मजबूर किया और इस मामले पर जब नीतीश कुमार की चुप्पी पर सवाल उठे तो उन्होंने सशक्त प्रशासक और कुशल राजनेता की तरह फैसला लिया, अपनी साफसुथरी छवि के साथ किसी भी तरह का समझौता न किए जाने का जोखिम, एक तरफ उन्हें नैतिकता के पैमाने पर ऊँचा कद देता है तो दूसरी तरफ महागठबंधन टूटने में फिर एक नई अप्रत्याशित संभावना टटोलने पर मजबूर भी करता, नीतीश कुमार ने एक बार फिर दिखा दिया कि उनकी साफसुथरी छवि ही उनकी कुल जमा राजनीतिक पूंजी है और वे इसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकते हैं।

नीतीश कुमार की इस तरह की राजनीति को उनके चालाकी वाले फैसले के बतौर देखा जाता है, लेकिन इसे रियलिस्टिक पॉलिटिक्स कहना ज्यादा सही होगा, वो साफगोई से अपनी बात रखते हैं, सिर्फ खुद को विरोधी दिखाने के लिए किसी भी मुद्दे पर विरोध नहीं करते, अपनी राजनीतिक हैसियत का सही आकलन करते हैं और इसी का नतीजा है कि आरजेडी से कम विधायक होने के बावजूद बिहार सरकार पर उनका पूरा कंट्रोल रहा, वो बिहार के सबसे ताकतवर राजनीतिक शख्सियत हैं, उनके करीब कोई और दूसरा नेता नहीं ठहरता। बिहार से बाहर भी गैरबीजेपी दलों में वो एक सर्वमान्य और सम्मानित नेता हैं, कड़े फैसला लेने से पीछे नहीं हठते।

यह नीतीश की रियलिस्टिक पॉलिटिक्स ही है कि वो सहजता और विनम्रता से हर बार सटीक निर्णय लेते हैं। वे हमेशा लोकतांत्रिक राजनीति के निष्ठुर आंकड़े सामने रख देते हैं। लेकिन वे जितनी बार भी ऐसा करते हैं उनकी छवि मजबूत ही होती है। शायद इसलिए क्योंकि इतनी भी राजनीतिक ईमानदारी किसी दूसरे नेता में नहीं दिखती। नीतीश की इसी रियलस्टिक पॉलिटिक्स की बदौलत उनकी सहज स्वीकार्यता है। उनकी तारीफ पीएम मोदी भी करते हैं और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी। जबकि जैसे केंद्र में पीएम मोदी के सामने कोई नहीं है वैसे ही बिहार में नीतीश के सामने कोई नहीं है। नीतीश एक छोटे दल का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन उनकी साफ सुथरी राजनीति ने उन्हें ऊंचा कद दिया है।

नीतीश कुमार को राजनीति का माहिर खिलाड़ी माना जाता है। उन्होंने न केवल राज्य में मुख्यमंत्री के रूप में दो पारियां खेली हैं, बल्कि केंद्रीय मंत्री के रूप में भी वे सफलता के साथ काम कर चुके हैं। बिहार के नालंदा जिले के कल्याण बिगहा के रहने वाले नीतीश बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। साल 1974 में जयप्रकाश नारायण के 'संपूर्ण क्रांति' के जरिए राजनीति का ककहारा सीखने वाले नीतीश बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और अपने जमाने के धाकड़ नेता सत्येंद्र नारायण सिंह के भी काफी करीबी रहे हैं।साल 1985में नीतीश पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य बने और उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

हालांकि बीजेपी के करीब जाने का नीतीश का फैसला उनके लिए उतना फायदेमंद नहीं रहने वाला है जितना बीजेपी के लिए। बीजेपी के प्रचंड लहर के दौर में नीतीश कुमार विपक्ष का ऐसा चेहरा हैं जिन्होंने सीधे मोदी से टक्कर लेकर उन्हें पटखनी देने में कामयाबी हासिल की है। इसी बूते वो 2019 में विपक्ष का चेहरा बनने की क्षमता रखते हैं. बीजेपी से हाथ मिलाने पर वो बिहार की सरकार तो बचा लेंगे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा। यानी बीजेपी के साथ से नीतीश का विकास संभव नहीं दिखता। वहीं दूसरी बात 2014 के लोकसभा चुनाव में महादलित के फॉर्मूले के फेल हो जाने के बाद नीतीश कुमार ने महिलाओं के मुद्दों पर फोकस किया। बिहार में शराबबंदी का फैसला महिलाओं को लुभाने के मद्देनजर लिया गया। इस फैसले ने नीतीश कुमार के लिए महिलाओं के एक बड़े वोटबैंक को तौर पर तैयार किया है। अगर नीतीश अब बीजेपी के साथ जाते हैं तो सीधे-सीधे उनके वोटबैंक में सेंध होगी। नीतीश का अपना कद कमजोर होगा। क्योंकि जिन लोगों ने मोदी के चेहरे को तिलांजलि देकर बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश को वोट किया था वो अगले चुनावों में बीजेपी और मोदी की ओर झुकेंगे। नीतीश कुमार के लिए ये अपना जनाधार खोने जैसा होगा। खैर जो भी हो, लेकिन बिहार के राजनैतिक गलियारों में सियासी मामला गर्मा गया है, नीतीश के इस्तीफे के तुरंत बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कह दिया कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में जुड़ने के लिए नीतीश कुमार जी को बहुत-बहुत बधाई। वहीं बीजेपी की प्रदेश इकाई ने तुरंत अपने समर्थन का ऐलान कर दिया। तस्वीर कमोबेश साफ हो गई कि बीजेपी ने नीतीश को अपनी तरफ खींच लिया है। अब देखना होगा कि नीतीश कुमार का यह राजनैतिक दांव उन्हें कितना सफल बनाता है।

चीन की महत्वाकांक्षा, समुद्र और सीमाएं

सत्यम सिंह बघेल (आलेख)-

जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक भारत और चीन की सीमा करीब 3488 किलोमीटर लंबी है। इसका 220 किलोमीटर लंबा हिस्सा सिक्किम में आता है। चूंकि सिक्किम सेक्टर में बना हुआ गतिरोध अभी तक जारी है, इस विवाद को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक समय बीत गया है, लेकिन तनाव जस के तस बना हुआ है। भारत, चीन और भूटान की सीमा पर डोकलाम में कायम मौजूदा तनाव पर चीन ने एकबार फिर भारत को चेतावनी दी है। डोकलाम पर जारी तनातनी को लेकर अब तक चीन अपने सरकारी मीडिया के जरिए युद्ध की धमकी देता आ रहा था, लेकिन अब सीधे चीन की सेना भारत को युद्ध की चेतावनी दे रही है। चीन की सेना के प्रवक्ता ने कहा कि भारत पीछे नहीं हटा तो चीन डोकलाम में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा देगा। चीनी सेना के प्रवक्ता वू चिऐन ने भारत को धमकी भरे लहजे में कहा, चीनी सेना का 90 साल का इतिहास हमारी क्षमता को साबित करता है। पहाड़ को हिलाना तो मुमकिन है, पर चीन की सेना को नहीं, उन्होंने आगे कहा कि भारत किसी भ्रम में न रहे, हम हर कीमत पर अपनी संप्रभुता की रक्षा करेंगे। जब से यह विवाद शुरू हुआ है, तब से ही चीनी मीडिया लगातर इस मुद्दे पर भारत के खिलाफ लिख रहा है। ग्लोबल टाइम्स तो आएदिन अपने लेखों में भारत को चेतावनियां देता रहता है। इस पूरे मसले पर भारत का रुख न केवल काफी दृढ़ रहा है, बल्कि भारत की प्रतिक्रिया काफी सधी हुई भी दिख रही है। 

डोकलाम में पूरा विवाद सड़क निर्माण को लेकर शुरू हुआ था। 16 जून को डोकलाम में चीन का सड़क बनाने का एकतरफा फैसला उसकी गलत विदेश नीति का हिस्सा है। भूटान ने चीन के इस कदम का सही कूटनीतिक रास्ते के जरिए विरोध जताया था। चीन को इस बात का अहसास था कि भूटान ऐसा ही करेगा, लेकिन उसे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि भारत अपने पड़ोसी देश भूटान की मदद के लिए इतनी ताकत से आगे आएगा। भारतीय सेना ने भूटान सरकार से बात करने के बाद यथास्थिति के लिए कदम उठाया, यही बात संभवत: चीन के परे रही।

1984 से सीमा के इस विवाद पर चीन-भूटान दोनों देशों के बीच बातचीत चलती रही है। अब तक 24 दौर की बातचीत हो चुकी है। चीन के सैनिक अब तक इस इलाके में गश्त के लिए आते रहे हैं, लेकिन वापस चले जाते थे। 16 जून को चीन की सेना की कंस्ट्रक्शन टीम भारी संख्या में मशीनों और वाहनों के साथ आई और भूटान के इलाके में घुस गई। इस तरह की मूवमेंट पहले कभी नहीं देखी गई थी। इस मूवमेंट की तस्वीरें भी सामने आईं हैं। वहां चीनी सेना के लोगों को सड़क बनाने की कोशिश करते देख जोमपेरी चौकी पर मौजूद भूटान के सैनिकों ने उन्हें वापस जाने के लिए कहा। चीन के सैनिकों से यह भी कहा गया कि उनका एकतरफा कदम  1988  और  1998 की संधि का उल्लंघन है। भूटान के सैनिकों के मुकाबले चीन के सैनिक भारी संख्या में थे और उन्होंने भूटानी सैनिकों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। भारत और भूटान की सेनाओं के बीच अरसे से सहयोग होता रहा है, भूटान में भारतीय सैनिकों की मौजूदगी भी रही है। चीन के सैनिक जिस इलाके में सड़क बनाना चाह रहे थे, वह भूटान के साथ भारत के लिए ढेरों सुरक्षा चिंताएं खड़ी करता है। उस इलाके से भारत के सिलिगुड़ी कॉरिडोर की दूरी काफी कम है, जो नॉर्थ ईस्ट को भारत के शेष इलाकों से जोड़ता है। भारतीय सैनिक भूटान के सैनिकों के सपॉर्ट में डोका ला चौकी से नीचे उतर कर आए, लेकिन तब तक चीन के सैनिक वापस जा चुके थे। सोशल मीडिया में ऐसी क्लिपिंग भी आई कि भारत और चीन सैनिकों के बीच तब हाथापाई हो गई थी, लेकिन इन क्लिपिंग को पुराना पाया गया है। चीन के सैनिकों ने भारतीय बंकर जरूर नष्ट कर दिए थे, लेकिन भारत ने इसे तूल नहीं दिया क्योंकि वे पहले भी बंकर नष्ट कर चुके हैं। 20 तारीख को नाथू ला में भारत और चीन के बीच बॉर्डर पोस्ट मीटिंग में पूरा मुद्दा उठा था। चीन इस मामले में आरोप लगा रहा था कि भारतीय सैनिकों ने सिक्किम सेक्टर में सीमा पार की है, लेकिन भारत का यह रुख रहा है कि भारत और चीन के बीच सिक्किम की स्थिति को लेकर भले ही मामला सुलझ चुका हो, लेकिन सिक्किम से लगी सीमा का विवाद नहीं सुलझा है, इसलिए यह कहना गलत है कि भारतीय सैनिकों ने सीमा पार की है। वैसे भी भारत के सैनिकों को भूटान जाने के लिए चीन की सीमा पार करने की कहीं से भी जरूरत नहीं है। 

सड़क निर्माण को लेकर भारत-चीन का कोई सीधा विवाद नहीं हैं, मसलन यह भूटान-चीन के बीच का है. डोकलाम को भूटान अपना हिस्सा मानता है। ऐसे में हो सकता है कि चीन को लगा हो कि भारत, भूटान के बचाव में सामने नहीं आएगा। लेकिन भारत डोकलाम पर भूटान के दावे का समर्थन करता है और उसे पता है कि डोकलाम में होने वाले हर विवाद का सीधा असर भारत-चीन बाडर पर भी पड़ेगा, ऐसे में भारत ने चीन के कदम का पुरजोर विरोध किया। 

वजह यह भी है कि साल  2010 से चीन अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा के प्रति बेहद आक्रामक हो गया है। चीन कोरियाई प्रायद्वीप में धीरे-धीरे तनाव पैदा कर रहा है। जापान और दक्षिण चीन सागर के तटीय देशों के साथ उसका विवाद है। अब चीन, दक्षिण चीन सागर, जापान सागर और पीओके को अपना समझ कर इस्तेमाल करता है। एक तरह से ये चीन के हो चुके हैं। 2015  में जापान सागर और 2016 में दक्षिण चीन सागर में चीन के दावे से उसकी इस महत्वाकांक्षा का पता चल चुका है। चीन धीरे-धीरे पाकिस्तान से आधा पीओके ले चुका है। अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को लेकर भी वह बेहद आक्रामक है, वह अपना दावा जताता है। 

वैसे भी भारत और चीन के आपसी रिश्तों में कई द्विपक्षीय मुद्दों को लेकर तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। चीन ने जहां परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) समूह में भारत के प्रवेश को लेकर आपत्ति जताई वहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किए जाने के प्रस्ताव पर अड़गा लगा दिया था। इसके अलावा भारत-चीन के बीच इन मुद्दों को लेकर विवाद है-

विवाद की सबसे बड़ी वजह है सीमा- भारत- चीन के बीच 4 हजार कि.मी की सीमा है जो कि निर्धारित नहीं है। इसे LAC कहते हैं। भारत और चीन के सैनिकों का जहां तक कब्जा है वही नियंत्रण रेखा है। जो कि 1914 में मैकमोहन ने तय की थी, लेकिन इसे भी चीन नहीं मानता और इसीलिए अक्सर वो घुसपैठ की कोशिश करता रहता है। विवाद की दूसरी अहम वजह है अरुणाचल प्रदेश- चीन अरुणाचल पर अपना दावा जताता है और इसीलिए अरुणाचल को विवादित बताने के लिए ही चीन वहां के निवासियों को स्टेपल वीजा देता है जिसका भारत विरोध करता है। तीसरी वजह है अक्साई चिन रोड- लद्दाख में इसे बनाकर चीन ने नया विवाद खड़ा किया। चौथी वजह है चीन का जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग मानने में आनाकानी करना। पांचवीं वजह है पीओके को पाकिस्तान का भाग मानने में चीन को कोई आपत्ति न होना। छठी वजह है पीओके में चीनी गतिविधियों में इजाफा। हाल ही में चीन ने यहां 46 बिलियन डॉलर की लागत का प्रोजेक्ट शुरू किया है जिससे भारत खुश नहीं है। सातवीं वजह है तिब्बत। इसे भारतीय मान्यता से चीन खफा रहता है। आठवीं वजह है ब्रह्मपुत्र नदी- दरअसल यहां बांध बनाकर चीन सारा पानी अपनी ओर मोड़ रहा है जिसका भारत विरोध कर रहा है। नौवीं वजह है हिंद महासागर में तेज हुई चीनी गतिविधि। दसवीं वजह है साउथ चाइना सी में प्रभुत्व कायम करने की चीनी कोशिश। तिब्‍बत के आध्‍यात्मिक नेता दलाई लामा से मुलाकात को लेकर भी चीन कड़ा एतराज जताता है। 

सीमा की विस्तारबाद नीति के साथ ही पिछले 35 साल के दौरान चीन बड़ी शिद्दत के साथ दो सैन्य शासन को परमाणु हथियारों से लैस करने की नीति पर चलता रहा है और ये देश हैं- पूर्वोत्तर एशिया में उत्तर कोरिया और दक्षिण एशिया में पाकिस्तान। कुछ रणनीतिक मतभेदों के बावजूद ये दोनों देश चीन के वफादार रहे हैं। दोनों चीन का उतना ही इस्तेमाल कर रहे हैं, जितना चीन उनका। चीन की तरह न तो उत्तर कोरिया और न ही पाकिस्तान को मौजूदा वैश्विक व्यवस्था पर भरोसा है। उसे अपनाने में दोनों की कोई दिलचस्पी नहीं है। चीन की आक्रामक नीति को आगे बढ़ाने के लिए नुकसान पहुंचाने वाले देश उसे उपलब्ध हैं। उनकी करतूतों से उन्हें खुद नुकसान पहुंचता है, लेकिन चीन को फायदा होता है। चीन का उनके बिना काम नहीं चल सकता और न उनका चीन के बिना। तीनों देश कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीके से सैन्य शासन द्वारा चलाए जा रहे हैं।

अमेरिका ने 20वीं सदी के दूसरे हिस्से में जो नीति अपनाई थी, चीन भी वही कर रहा है। चीन, जापान और द. कोरिया के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने के लिए उत्तरी कोरिया का इस्तेमाल कर रहा है। इसी तरह भारत के खिलाफ ताकत दिखाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है। अब यह सिर्फ वक्त की बात है कि चीन, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान के साथ नाटो जैसा कोई एशियाई गठजोड़ बना ले। चीन के दो मकसद हैं। पहला- चीन पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में टिकाए रखना। दूसरा- ऊंची विकास दर के जरिये अपने लक्ष्य को बरकरार रखना, ताकि अगले एक दशक में जब चीनी जनता की आय कम हो जाए या स्थिर हो जाए, तो वे बगावत पर न उतर आएं। इसके लिए इसे बड़ा बाजार और कच्चा माल चाहिए, यही वजह है कि वह जमीन और समुद्रों पर कब्जा करने में लगा है। चीन की इस महत्वाकांक्षा को देखते हुए उसके पड़ोसी देश अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने में लगे हैं, अमेरिका को साथ लेकर वे अपना सुरक्षा संपर्क बढ़ा रहे हैं, एशियाई सदी में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य का यही सार है। कहने का मतलब यह है कि हम एक दूसरे शीतयुद्ध की ओर बढ़ चले हैं, जो आगे तेज भी हो सकता है। इस स्थिति में भविष्य के टकराव भारत बनाम पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया, जापान बनाम उत्तरी कोरिया के तौर पर देखने को मिलेंगे। भविष्य को छोड़िये, ये टकराव तो अब दिखने भी लगे हैं।

चीन को लेकर भारत की समस्या यह रही है कि इसने चीन को सदैव ही 'कोल्ड पीस' (निष्क्रियता ओढ़कर शांति बनाए रखने की नीति) अपनाया है, हालाँकि इस बार भारत ने मजबूती से अपना पक्ष रखा है, लेकिन भारत को अभी और अधिक आक्रामकता दिखाने की जरूरत है। जब तक भारत अपनी स्थिति को देखते हुए मुखर और आक्रामक नहीं होता स्थिति सुधरने वाली नहीं है। साथ ही उम्मीद की जा सकती है कि चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के सैन्य इलिट के खिलाफ एक साथ खड़े होने के लिए दुनिया की अन्य शक्तियां ज्यादा वक्त नहीं लेंगी खुद को सत्ता में बरकरार रखने के लिए पहले भी वे एक साथ आ चुके हैं। अब समय लोकतांत्रिक देशों को एक साथ आने का है। इतिहास गवाह है ऐसे आक्रामक देश के प्रतिरोध के खिलाफ बाकी दुनिया को साथ आने में थोड़ा वक्त लगता है, लेकिन इस बार जल्दी करना होगा, क्योंकि चीन के मामले में इस तरह की पहल के लिए अब समय कम होता जा रहा है।

Tuesday, July 25, 2017

चीन की महत्वाकांक्षा, समुद्र और सीमाएं

सत्यम सिंह बघेल (आलेख)-

जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक भारत और चीन की सीमा करीब 3488 किलोमीटर लंबी है। इसका 220 किलोमीटर लंबा हिस्सा सिक्किम में आता है। चूंकि सिक्किम सेक्टर में बना हुआ गतिरोध अभी तक जारी है, इस विवाद को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक समय बीत गया है, लेकिन तनाव जस के तस बना हुआ है। भारत, चीन और भूटान की सीमा पर डोकलाम में कायम मौजूदा तनाव पर चीन ने एकबार फिर भारत को चेतावनी दी है। डोकलाम पर जारी तनातनी को लेकर अब तक चीन अपने सरकारी मीडिया के जरिए युद्ध की धमकी देता आ रहा था, लेकिन अब सीधे चीन की सेना भारत को युद्ध की चेतावनी दे रही है। चीन की सेना के प्रवक्ता ने कहा कि भारत पीछे नहीं हटा तो चीन डोकलाम में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा देगा। चीनी सेना के प्रवक्ता वू चिऐन ने भारत को धमकी भरे लहजे में कहा, चीनी सेना का 90 साल का इतिहास हमारी क्षमता को साबित करता है। पहाड़ को हिलाना तो मुमकिन है, पर चीन की सेना को नहीं, उन्होंने आगे कहा कि भारत किसी भ्रम में न रहे, हम हर कीमत पर अपनी संप्रभुता की रक्षा करेंगे। जब से यह विवाद शुरू हुआ है, तब से ही चीनी मीडिया लगातर इस मुद्दे पर भारत के खिलाफ लिख रहा है। ग्लोबल टाइम्स तो आएदिन अपने लेखों में भारत को चेतावनियां देता रहता है। इस पूरे मसले पर भारत का रुख न केवल काफी दृढ़ रहा है, बल्कि भारत की प्रतिक्रिया काफी सधी हुई भी दिख रही है। 

डोकलाम में पूरा विवाद सड़क निर्माण को लेकर शुरू हुआ था। 16 जून को डोकलाम में चीन का सड़क बनाने का एकतरफा फैसला उसकी गलत विदेश नीति का हिस्सा है। भूटान ने चीन के इस कदम का सही कूटनीतिक रास्ते के जरिए विरोध जताया था। चीन को इस बात का अहसास था कि भूटान ऐसा ही करेगा, लेकिन उसे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि भारत अपने पड़ोसी देश भूटान की मदद के लिए इतनी ताकत से आगे आएगा। भारतीय सेना ने भूटान सरकार से बात करने के बाद यथास्थिति के लिए कदम उठाया, यही बात संभवत: चीन के परे रही।

1984 से सीमा के इस विवाद पर चीन-भूटान दोनों देशों के बीच बातचीत चलती रही है। अब तक 24 दौर की बातचीत हो चुकी है। चीन के सैनिक अब तक इस इलाके में गश्त के लिए आते रहे हैं, लेकिन वापस चले जाते थे। 16 जून को चीन की सेना की कंस्ट्रक्शन टीम भारी संख्या में मशीनों और वाहनों के साथ आई और भूटान के इलाके में घुस गई। इस तरह की मूवमेंट पहले कभी नहीं देखी गई थी। इस मूवमेंट की तस्वीरें भी सामने आईं हैं। वहां चीनी सेना के लोगों को सड़क बनाने की कोशिश करते देख जोमपेरी चौकी पर मौजूद भूटान के सैनिकों ने उन्हें वापस जाने के लिए कहा। चीन के सैनिकों से यह भी कहा गया कि उनका एकतरफा कदम  1988  और  1998 की संधि का उल्लंघन है। भूटान के सैनिकों के मुकाबले चीन के सैनिक भारी संख्या में थे और उन्होंने भूटानी सैनिकों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। भारत और भूटान की सेनाओं के बीच अरसे से सहयोग होता रहा है, भूटान में भारतीय सैनिकों की मौजूदगी भी रही है। चीन के सैनिक जिस इलाके में सड़क बनाना चाह रहे थे, वह भूटान के साथ भारत के लिए ढेरों सुरक्षा चिंताएं खड़ी करता है। उस इलाके से भारत के सिलिगुड़ी कॉरिडोर की दूरी काफी कम है, जो नॉर्थ ईस्ट को भारत के शेष इलाकों से जोड़ता है। भारतीय सैनिक भूटान के सैनिकों के सपॉर्ट में डोका ला चौकी से नीचे उतर कर आए, लेकिन तब तक चीन के सैनिक वापस जा चुके थे। सोशल मीडिया में ऐसी क्लिपिंग भी आई कि भारत और चीन सैनिकों के बीच तब हाथापाई हो गई थी, लेकिन इन क्लिपिंग को पुराना पाया गया है। चीन के सैनिकों ने भारतीय बंकर जरूर नष्ट कर दिए थे, लेकिन भारत ने इसे तूल नहीं दिया क्योंकि वे पहले भी बंकर नष्ट कर चुके हैं। 20 तारीख को नाथू ला में भारत और चीन के बीच बॉर्डर पोस्ट मीटिंग में पूरा मुद्दा उठा था। चीन इस मामले में आरोप लगा रहा था कि भारतीय सैनिकों ने सिक्किम सेक्टर में सीमा पार की है, लेकिन भारत का यह रुख रहा है कि भारत और चीन के बीच सिक्किम की स्थिति को लेकर भले ही मामला सुलझ चुका हो, लेकिन सिक्किम से लगी सीमा का विवाद नहीं सुलझा है, इसलिए यह कहना गलत है कि भारतीय सैनिकों ने सीमा पार की है। वैसे भी भारत के सैनिकों को भूटान जाने के लिए चीन की सीमा पार करने की कहीं से भी जरूरत नहीं है। 

सड़क निर्माण को लेकर भारत-चीन का कोई सीधा विवाद नहीं हैं, मसलन यह भूटान-चीन के बीच का है. डोकलाम को भूटान अपना हिस्सा मानता है। ऐसे में हो सकता है कि चीन को लगा हो कि भारत, भूटान के बचाव में सामने नहीं आएगा। लेकिन भारत डोकलाम पर भूटान के दावे का समर्थन करता है और उसे पता है कि डोकलाम में होने वाले हर विवाद का सीधा असर भारत-चीन बाडर पर भी पड़ेगा, ऐसे में भारत ने चीन के कदम का पुरजोर विरोध किया। 

वजह यह भी है कि साल  2010 से चीन अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा के प्रति बेहद आक्रामक हो गया है। चीन कोरियाई प्रायद्वीप में धीरे-धीरे तनाव पैदा कर रहा है। जापान और दक्षिण चीन सागर के तटीय देशों के साथ उसका विवाद है। अब चीन, दक्षिण चीन सागर, जापान सागर और पीओके को अपना समझ कर इस्तेमाल करता है। एक तरह से ये चीन के हो चुके हैं। 2015  में जापान सागर और 2016 में दक्षिण चीन सागर में चीन के दावे से उसकी इस महत्वाकांक्षा का पता चल चुका है। चीन धीरे-धीरे पाकिस्तान से आधा पीओके ले चुका है। अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को लेकर भी वह बेहद आक्रामक है, वह अपना दावा जताता है। 

वैसे भी भारत और चीन के आपसी रिश्तों में कई द्विपक्षीय मुद्दों को लेकर तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। चीन ने जहां परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) समूह में भारत के प्रवेश को लेकर आपत्ति जताई वहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किए जाने के प्रस्ताव पर अड़गा लगा दिया था। इसके अलावा भारत-चीन के बीच इन मुद्दों को लेकर विवाद है-

विवाद की सबसे बड़ी वजह है सीमा- भारत- चीन के बीच 4 हजार कि.मी की सीमा है जो कि निर्धारित नहीं है। इसे LAC कहते हैं। भारत और चीन के सैनिकों का जहां तक कब्जा है वही नियंत्रण रेखा है। जो कि 1914 में मैकमोहन ने तय की थी, लेकिन इसे भी चीन नहीं मानता और इसीलिए अक्सर वो घुसपैठ की कोशिश करता रहता है। विवाद की दूसरी अहम वजह है अरुणाचल प्रदेश- चीन अरुणाचल पर अपना दावा जताता है और इसीलिए अरुणाचल को विवादित बताने के लिए ही चीन वहां के निवासियों को स्टेपल वीजा देता है जिसका भारत विरोध करता है। तीसरी वजह है अक्साई चिन रोड- लद्दाख में इसे बनाकर चीन ने नया विवाद खड़ा किया। चौथी वजह है चीन का जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग मानने में आनाकानी करना। पांचवीं वजह है पीओके को पाकिस्तान का भाग मानने में चीन को कोई आपत्ति न होना। छठी वजह है पीओके में चीनी गतिविधियों में इजाफा। हाल ही में चीन ने यहां 46 बिलियन डॉलर की लागत का प्रोजेक्ट शुरू किया है जिससे भारत खुश नहीं है। सातवीं वजह है तिब्बत। इसे भारतीय मान्यता से चीन खफा रहता है। आठवीं वजह है ब्रह्मपुत्र नदी- दरअसल यहां बांध बनाकर चीन सारा पानी अपनी ओर मोड़ रहा है जिसका भारत विरोध कर रहा है। नौवीं वजह है हिंद महासागर में तेज हुई चीनी गतिविधि। दसवीं वजह है साउथ चाइना सी में प्रभुत्व कायम करने की चीनी कोशिश। तिब्‍बत के आध्‍यात्मिक नेता दलाई लामा से मुलाकात को लेकर भी चीन कड़ा एतराज जताता है। 

सीमा की विस्तारबाद नीति के साथ ही पिछले 35 साल के दौरान चीन बड़ी शिद्दत के साथ दो सैन्य शासन को परमाणु हथियारों से लैस करने की नीति पर चलता रहा है और ये देश हैं- पूर्वोत्तर एशिया में उत्तर कोरिया और दक्षिण एशिया में पाकिस्तान। कुछ रणनीतिक मतभेदों के बावजूद ये दोनों देश चीन के वफादार रहे हैं। दोनों चीन का उतना ही इस्तेमाल कर रहे हैं, जितना चीन उनका। चीन की तरह न तो उत्तर कोरिया और न ही पाकिस्तान को मौजूदा वैश्विक व्यवस्था पर भरोसा है। उसे अपनाने में दोनों की कोई दिलचस्पी नहीं है। चीन की आक्रामक नीति को आगे बढ़ाने के लिए नुकसान पहुंचाने वाले देश उसे उपलब्ध हैं। उनकी करतूतों से उन्हें खुद नुकसान पहुंचता है, लेकिन चीन को फायदा होता है। चीन का उनके बिना काम नहीं चल सकता और न उनका चीन के बिना। तीनों देश कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीके से सैन्य शासन द्वारा चलाए जा रहे हैं।

अमेरिका ने 20वीं सदी के दूसरे हिस्से में जो नीति अपनाई थी, चीन भी वही कर रहा है। चीन, जापान और द. कोरिया के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने के लिए उत्तरी कोरिया का इस्तेमाल कर रहा है। इसी तरह भारत के खिलाफ ताकत दिखाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है। अब यह सिर्फ वक्त की बात है कि चीन, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान के साथ नाटो जैसा कोई एशियाई गठजोड़ बना ले। चीन के दो मकसद हैं। पहला- चीन पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में टिकाए रखना। दूसरा- ऊंची विकास दर के जरिये अपने लक्ष्य को बरकरार रखना, ताकि अगले एक दशक में जब चीनी जनता की आय कम हो जाए या स्थिर हो जाए, तो वे बगावत पर न उतर आएं। इसके लिए इसे बड़ा बाजार और कच्चा माल चाहिए, यही वजह है कि वह जमीन और समुद्रों पर कब्जा करने में लगा है। चीन की इस महत्वाकांक्षा को देखते हुए उसके पड़ोसी देश अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने में लगे हैं, अमेरिका को साथ लेकर वे अपना सुरक्षा संपर्क बढ़ा रहे हैं, एशियाई सदी में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य का यही सार है। कहने का मतलब यह है कि हम एक दूसरे शीतयुद्ध की ओर बढ़ चले हैं, जो आगे तेज भी हो सकता है। इस स्थिति में भविष्य के टकराव भारत बनाम पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया, जापान बनाम उत्तरी कोरिया के तौर पर देखने को मिलेंगे। भविष्य को छोड़िये, ये टकराव तो अब दिखने भी लगे हैं।

चीन को लेकर भारत की समस्या यह रही है कि इसने चीन को सदैव ही 'कोल्ड पीस' (निष्क्रियता ओढ़कर शांति बनाए रखने की नीति) अपनाया है, हालाँकि इस बार भारत ने मजबूती से अपना पक्ष रखा है, लेकिन भारत को अभी और अधिक आक्रामकता दिखाने की जरूरत है। जब तक भारत अपनी स्थिति को देखते हुए मुखर और आक्रामक नहीं होता स्थिति सुधरने वाली नहीं है। साथ ही उम्मीद की जा सकती है कि चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के सैन्य इलिट के खिलाफ एक साथ खड़े होने के लिए दुनिया की अन्य शक्तियां ज्यादा वक्त नहीं लेंगी खुद को सत्ता में बरकरार रखने के लिए पहले भी वे एक साथ आ चुके हैं। अब समय लोकतांत्रिक देशों को एक साथ आने का है। इतिहास गवाह है ऐसे आक्रामक देश के प्रतिरोध के खिलाफ बाकी दुनिया को साथ आने में थोड़ा वक्त लगता है, लेकिन इस बार जल्दी करना होगा, क्योंकि चीन के मामले में इस तरह की पहल के लिए अब समय कम होता जा रहा है।