जमशेदपुर की रहने वाली प्रत्युषा बनर्जी का जन्म 10 अगस्त 1990 में हुआ था। प्रत्यूषा ने साल 2010 में कलर्स चैनल के हिट शो बालिका वधु में एंट्री ली थी । उनका चयन फेसबुक के माध्यम से हुआ था। इस धारावाहिक के चुनाव में प्रत्युषा ने 70 प्रतिभागियों को पछाड़कर अपनी जगह बनाई । इसके बाद आखिरी तीन प्रतिभागियों का चुनाव दर्शकों की वोटिंग के आधार पर किया गया , जिसमें प्रत्युषा को सबसे ज्यादा वोट मिले और उनका चुनाव बड़ी आनंदी के लिए किया गया। 16 साल की उम्र में ही प्रत्युषा ने टीवी सीरियल में काम करना शुरु कर दिया था। अभिनय के साथ-साथ प्रत्युषा ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी और डिस्टेंस एजुकेशन के द्वारा अपनी बाकी की पढ़ाई पूरी की। प्रत्युषा बनर्जी अपने एक्टिंग करियर की गाइडलाइंस भी खुद बनाया करती थीं। अगर काम उनके मुताबिक नहीं होता तो वो उसे छोड़ देती। जमशेदपुर जैसे छोटे शहर से आकर टीवी की दुनिया में शौहरत हासिल करने वाली बालिका बधु की आनंदी के किरदार में अपनी प्रसिद्धि बटोरने वाली प्रत्यूषा बनर्जी ने आनंदी के किरदार के बाद अभिनय की दुनिया में और भी कई किरदार निभाये, लेकिन इस किरदार ने उन्हें जो पहचान दिलाई वो किसी और से नहीं मिल पायी । छोटी उम्र में ही प्रत्युषा ने बड़ा मुकाम हासिल कर लिया था लेकिन एक समय ऐसा आया कि फर्स से अर्स तक पहुंचने वाली तथा संघर्ष के हर दौर से गुजरकर सफलता के शिखर तक पहुंचने वाली प्रत्युषा बनर्जी आखिर में हिम्मत हार गई और घर में पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली। क्या वजह है, कि संघर्ष कर ऊंची उड़ान भरने वाली प्रत्युषा बनर्जी अपने सफलता के दिनों में जिंदगी की जंग हार गई । प्रत्यूषा बनर्जी की मौत से जहां उनका परिवार सदमे में है, तो वहीं उनके प्रशंसक भी इस गम से उभर नहीं पा रहे हैं। प्रत्युषा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत की खबर से आहत होकर रायपुर के गोकुलनगर गुढयारी इलाके की रहने वालीं मधु महानंद ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। आनंदी यानी प्रत्यूषा यानी सूर्य की अंतिम रश्मि का भरी दोपहर में ही सूर्यास्त हो गया। झारखंड की संकरी गलियों से निकलकर चांद छूने की तमन्ना लेकर कांक्रीट के जंगल में पहुंची एक होनहार लड़की प्रत्यूषा को चांद तो नहीं मिला किन्तु मौत जरूर मिल गई। उनकी कामयाबियों का जिक्र और क्या हुआ, कैसे हुआ आदि का तबसरा तो तमाम चैनल लगातार कर ही रहे हैं, पर यह कोई नहीं कह रहा कि संस्कारों से भटकर नकारात्मकता को गले लगाने का परिणाम कितना बुरा होता है। उसके साथ जाम टकराने वाले तो थे , चौंधियाती रातों के ढलने तक फरेबी कहकहे लगाने वाले भी थे, नहीं था तो कोई एक ऐसा अपना जो सचमुच अपना होता। जिससे मन की बात कही जा सकती। कस्बाई मानसिकता की एक लड़की को मुंबई ने बिंदास तो बना दिया, लेकिन इतना तन्हा भी कर दिया कि दर्द बांटने को एक कंधा भी न था। ऐसा एक भी कंधा होता तो चार कंधों की जरूरत इस उम्र में न पड़ती। आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ और पश्चिमी सभ्यता की दुहाई देने वाले भूल जाते हैं कि जड़ों से टूटकर जिंदगी से जुड़े रह पाना बिल्कुल सम्भव नही है । ऐसी कामयाबियां बेमानी हैं जिनमें जिंदा रहने का मकसद ही हवन हो जाए।
हम किसी की आत्महत्या की खबर पढ़कर दुखी होते हैं या आश्चर्य जताकर भूल जाते हैं । लेकिन क्या किसी ने सोचा है ? आत्महत्या के आंकड़े दिन पर दिन क्यों बढ़ रहें है । इसकी मुख्य वजह क्या है ? यह जानना, समझना बेहद जरूरी है । प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या केवल उनका मामला नही है बल्कि यह एक समाज का गंभीर विषय है । क्योंकि हमारे देश में किसी न किसी वजह से हर दिन न जाने कितने लोग आत्महत्या कर गुमनाम हो जाते हैं । आज समाज में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। परीक्षा के समय छात्र-छात्राओं द्वारा मौत को गले लगाने की घटनाएं आम बात हो गई है। हर वर्ष ऐसी घटनाएं सामने आ रही है। सिर्फ छात्र-छात्राएं ही नहीं आम लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं। छोटी-छोटी बातों व तनाव को लेकर लोग सीधे जीवन को ही समाप्त करने का मन बना रहे हैं। शहरी क्षेत्र हो या गांव ऐसी घटनाएं अब आम होती जा रही हैं।लोगों में तनाव सहने की क्षमता घट चुकी है, जो बेहद चिंताजनक विषय है । आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किशोरावस्था के होते हैं। इस समय उनमें सोचने-समझने की दक्षता पर्याप्त नहीं होती। मानसिक रूप से वे पूरी तरह परिपक्व नहीं होते। छात्र-छात्राएं इसी अवस्था से पढ़ाई आदि को लेकर माता-पिता, समाज व दोस्तों का दबाव भी तनाव का कारण बनता है।कभी सिर्फ बड़ी उम्र के लोगों को होने वाला डिप्रेशन अब तेजी से स्कूल जाने वाले बच्चों को अपना आसान शिकार बना रहा है। एक शोध के नतीजे बताते हैं कि बच्चों में तेजी से बढ़ रही आत्महत्या की घटनाओं के पीछे सबसे बड़ी वजह यही डिप्रेशन है। अहम बात यह है कि बच्चों में डिप्रेशन के कारण बहुत ही छोटे-छोटे होते हैं, जिन्हें अभिभावक और समाज समझ नहीं पाते। विडम्बना यह है कि जो मां-बाप उन्हें दुनिया में लाते हैं प्राय: उन्हीं की महत्वाकांक्षाओं का दबाव उनकी जान ले लेता है। बच्चों में 80 प्रतिशत आत्महत्याएं पूर्व संकेत के बाद ही होती हैं। कुछ ही खुदखुशी क्षणिक आवेग में होती हैं। आत्महत्या करने वाले ज्यादातर बच्चे डिप्रेशन, खासकर सायकोटिक डिप्रेशन का शिकार होते हैं। उनके मन में हर समय एक तरह का अपराधबोध मौजूद होता है। सबसे ज्यादा वे इस बात से दुखी होते हैं कि अपने माता-पिता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। किसी भी गलत काम या दुखद घटना के लिए भी बच्चे कई बार खुद को दोषी मान लेते हैं और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। निराशा और अवसाद की चरम सीमा होती है आत्महत्या, जिससे बचने के लिए जरूरी है कि बच्चों को डिप्रेशन से बचाया जाए। वैसे निराशा, अवसाद की यह प्रवत्ति सिर्फ बच्चों को ही नही बल्कि बुजुर्ग, युवा, जवान, महिला, अमीर, गरीब सभी ग्रसित हैं। आज हर वर्ग, हर उम्र के लोग आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर रहे हैं । आखिर क्यों आत्महत्या की घटनाएं दिन पर दिन बढ़ रहीं हैं, क्यों लोग अवसाद से ग्रसित हो रहे हैं ? क्यों लोगों में तनाव सहने की क्षमता कम हो रही है ? इसकी मुख्य वजह पर गौर किया जाये तथा हमारी शिक्षा व्यवस्था में उन बातों को प्रमुखता से बताया जाये, जिनकी जानकारी देना अतिआवश्यक है। जैसे जीवन से प्रेम करना, संघर्षशील लोगों का उदाहरण देना, दुख मे खुद को किस तरह संभाल कर रखें, संघर्ष में खुद को कैसे प्रेरित करें, खुश रहने के तरीके, नेगेटिव सोच से बचने की कोशिश करना, हमेशा सकारात्मक बने रहने और सकारात्मकता के फायदे के बारे में बताया जाये, किसी भी काम मे धैर्य रखने के बारे में एवं इस तरह से लोगों में सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणादायक बातें बताना बहुत आवश्यक है ।
सत्यम सिंह बघेल ।
हम किसी की आत्महत्या की खबर पढ़कर दुखी होते हैं या आश्चर्य जताकर भूल जाते हैं । लेकिन क्या किसी ने सोचा है ? आत्महत्या के आंकड़े दिन पर दिन क्यों बढ़ रहें है । इसकी मुख्य वजह क्या है ? यह जानना, समझना बेहद जरूरी है । प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या केवल उनका मामला नही है बल्कि यह एक समाज का गंभीर विषय है । क्योंकि हमारे देश में किसी न किसी वजह से हर दिन न जाने कितने लोग आत्महत्या कर गुमनाम हो जाते हैं । आज समाज में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। परीक्षा के समय छात्र-छात्राओं द्वारा मौत को गले लगाने की घटनाएं आम बात हो गई है। हर वर्ष ऐसी घटनाएं सामने आ रही है। सिर्फ छात्र-छात्राएं ही नहीं आम लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं। छोटी-छोटी बातों व तनाव को लेकर लोग सीधे जीवन को ही समाप्त करने का मन बना रहे हैं। शहरी क्षेत्र हो या गांव ऐसी घटनाएं अब आम होती जा रही हैं।लोगों में तनाव सहने की क्षमता घट चुकी है, जो बेहद चिंताजनक विषय है । आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किशोरावस्था के होते हैं। इस समय उनमें सोचने-समझने की दक्षता पर्याप्त नहीं होती। मानसिक रूप से वे पूरी तरह परिपक्व नहीं होते। छात्र-छात्राएं इसी अवस्था से पढ़ाई आदि को लेकर माता-पिता, समाज व दोस्तों का दबाव भी तनाव का कारण बनता है।कभी सिर्फ बड़ी उम्र के लोगों को होने वाला डिप्रेशन अब तेजी से स्कूल जाने वाले बच्चों को अपना आसान शिकार बना रहा है। एक शोध के नतीजे बताते हैं कि बच्चों में तेजी से बढ़ रही आत्महत्या की घटनाओं के पीछे सबसे बड़ी वजह यही डिप्रेशन है। अहम बात यह है कि बच्चों में डिप्रेशन के कारण बहुत ही छोटे-छोटे होते हैं, जिन्हें अभिभावक और समाज समझ नहीं पाते। विडम्बना यह है कि जो मां-बाप उन्हें दुनिया में लाते हैं प्राय: उन्हीं की महत्वाकांक्षाओं का दबाव उनकी जान ले लेता है। बच्चों में 80 प्रतिशत आत्महत्याएं पूर्व संकेत के बाद ही होती हैं। कुछ ही खुदखुशी क्षणिक आवेग में होती हैं। आत्महत्या करने वाले ज्यादातर बच्चे डिप्रेशन, खासकर सायकोटिक डिप्रेशन का शिकार होते हैं। उनके मन में हर समय एक तरह का अपराधबोध मौजूद होता है। सबसे ज्यादा वे इस बात से दुखी होते हैं कि अपने माता-पिता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। किसी भी गलत काम या दुखद घटना के लिए भी बच्चे कई बार खुद को दोषी मान लेते हैं और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। निराशा और अवसाद की चरम सीमा होती है आत्महत्या, जिससे बचने के लिए जरूरी है कि बच्चों को डिप्रेशन से बचाया जाए। वैसे निराशा, अवसाद की यह प्रवत्ति सिर्फ बच्चों को ही नही बल्कि बुजुर्ग, युवा, जवान, महिला, अमीर, गरीब सभी ग्रसित हैं। आज हर वर्ग, हर उम्र के लोग आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर रहे हैं । आखिर क्यों आत्महत्या की घटनाएं दिन पर दिन बढ़ रहीं हैं, क्यों लोग अवसाद से ग्रसित हो रहे हैं ? क्यों लोगों में तनाव सहने की क्षमता कम हो रही है ? इसकी मुख्य वजह पर गौर किया जाये तथा हमारी शिक्षा व्यवस्था में उन बातों को प्रमुखता से बताया जाये, जिनकी जानकारी देना अतिआवश्यक है। जैसे जीवन से प्रेम करना, संघर्षशील लोगों का उदाहरण देना, दुख मे खुद को किस तरह संभाल कर रखें, संघर्ष में खुद को कैसे प्रेरित करें, खुश रहने के तरीके, नेगेटिव सोच से बचने की कोशिश करना, हमेशा सकारात्मक बने रहने और सकारात्मकता के फायदे के बारे में बताया जाये, किसी भी काम मे धैर्य रखने के बारे में एवं इस तरह से लोगों में सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणादायक बातें बताना बहुत आवश्यक है ।
सत्यम सिंह बघेल ।
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