Tuesday, May 3, 2016

क्या विधवा स्त्री समाज का अंग नही

कुछ साल पहले एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दाखिल की थी। इसमें विधवाओं की दयनीय हालत को सुधारने की बात कही गई थी। इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से विधवाओं को पर्याप्त घर उपलब्ध कराने के लिए कहा। साथ ही मंथली ग्रांट को इस साल 1 जनवरी से 1300 से 5100 रुपए तक बढ़ाने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार वृंदावन में एक हजार विधवाओं के रहने के लिए घर बनवाएगी। इसके लिए 57 करोड़ का बजट रखा गया है। ये घर दिसंबर 2017 तक तैयार हो जाएंगे। इनके मेन्टेनेंस के लिए हर साल 4 करोड़ रुपए दिए जाएंगे। तथा वृंदावन की विधवाओं को राहत देने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के दूसरे शहरों और पश्चिम बंगाल, ओड़िसा और उत्तराखंड की विधवाओं को भी रिलीफ देने की ओर ध्यान दिया है । संतुलित समाज की कल्पना को साकार करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत ही सराहनीय और सम्मानजनक है। क्योंकि हमारे देश के अंदर समाज में विधवाओं की बहुत ही दयनीय स्थिति है । हमारे यहा विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। देश में कुछ ऐसे भी इलाके हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल सीमा से लगे कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती हैं। विधवाओं पर अनेक तरह की सामाजिक बंदिशे हमारे समाज में प्रचलित हैं । उनके लिए श्रृंगार तथा रंग-बिरंगे वस्र धारण करना वर्जित माना गया है। प्रायः वे काली ओढ़नी तथा सफेद छींट का घाघरा पहनते हुए सन्यास- व्रत के नियमों का पालन करती हैं। भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि विधवा के पति अपनी मृत्यु से पहले अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर देते हैं, लेकिन उन्हें यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ता है। उन्हें इसके लिए अपने बेटों से एनओसी लेना पड़ता है।
हम सब एक सामाजिक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें सदैव एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए जिससे समाधान की दिशा में सही कदम उठाए जा सकें। देश भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्ध, हिंसा  व बीमारी के चलते अपने पतियों को खो देती हैं और वो विधवा कहलाने लगती हैं | विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता आ रहा है। एक अनुमान के अनुसार पति की मौत के बाद अभिशाप समझकर परिवार द्वारा निकाली गईं, ऐसी महिलाओं की संख्या करीब चार करोड़ के आस-पास है | तथा वर्ष 2014 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 5 करोड़ विधवाएं हैं, परंपरा, रीति-रिवाज के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
वृंदावन और बनारस में रह रही हजारों विधवायें पिछले कई सालों से समाज की मुख्यधारा से दूर एक गुमनाम जिंदगी बिता रही है। इनमें अधिकतर विधवायें पश्चिम बंगाल एवं उत्तर भारत की हैं जो पति की मौत के बाद परिवार से निकाल दी गईं और देश के कई हिस्सों में भटकने के बाद वृंदावन और बनारस के विभिन्न आश्रमों में पहुंची या खुद परिवार द्वारा यहां जबरन पहुंचा दी गई। विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता। गैर समाज सेवी संस्थाओं की मदद से इनमें से कुछ को रहने और खाने का आसरा मिल जाता है ।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पुस्तक "हिन्दू विधवा विवाह" के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास में ब्राह्मण,  उच्च राजपूत, महाजन, ढोली, चूड़ीगर तथा सांसी जातियों में विधवा विवाह वर्जित था। अन्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलित थे। वर्ष 1853 में हुए एक अनुमान के अनुसार कोलकाता में लगभग 12,718 वेश्याएं रहती थी। ईश्वर चंद्र विद्यासागर उनकी इस हालत को परिमार्जित करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे। अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को हिंदूसमाज में स्थान दिलवाने का कार्य प्रारंभ किया। उनके प्रयासों द्वारा 1856 में अंग्रेज़ी सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर इस अमानवीय मनुष्य प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया था। विधवा विवाह से तात्पर्य ऐसी महिला से विवाह है जिसके विवाह उपरांत उसके पति का देहांत हो गया हो और वह वैध्वय जीवन व्यतीत कर रही हो। कुलीन वर्गीय ब्राह्मणों में यह व्यवस्था थी कि पत्नी के निधन हो जाने पर वह किसी भी आयु में दूसरा विवाह कर सकते हैं। यह आयु वृद्धावस्था भी हो सकती थी। पत्नी के रूप वह किशोरवय लड़की का चयन करते थे और जब उनकी मृत्यु हो जाती थी तो उस विधवा को समाज से अलग कर उसके साथ पाश्विक व्यवहार किया जाता था। जो महिलाएं इस तरह के व्यवहार को सहन नहीं कर पाती थीं, वह खुद को समर्थन देने के लिए वेश्यावृत्ति की ओर क़दम बढ़ा लेती थीं। विधवा विवाह को बेहद घृणित दृष्टि से देखा जाता था। इसी कारण बंगाल में महिलाओं विशेषकर बाल विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी।
लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में ऐसी विधवाओं को समाज की मुख्यधारा में वापिस लाए जाने की जरूरत है। जो अपने तन पर सफेद साड़ी आते ही समाज के रिश्ते-नातों और दुनिया के रंगों से अलग कर दी जाती हैं । वे अब बदलते समय के साथ समाज की मुख्यधारा में लौटना चाहती हैं और इनमें से कई विधवाएं एक बार फिर विवाह बंधन में बंधने एवं नई जिन्दगी जीने का सपना भी देखती हैं। अत: महिलाओं को विधवा होने के बाद पुरुषों की ही तरह फिर से विवाह करने का अधिकार होना चाहिए। विधवा महिलाओं को समाज में बिल्कुल अनदेखा कर दिया जाता है, जबकि उन्हें फिर से रिश्ते जोड़ने का हक मिलना चाहिए, समाज के लोग इसमे उनका साथ दें। महिला कम उम्र में विधवा हो जाती है तो उसे पुन: घर बसाने का मौका दिया जाना चाहिए। इसके लिए समाज को एवं समाज के हर वर्ग को जागरूक होना होगा और रीति-रिवाज और परम्पराओं को परे रखकर, विधवाओं को उनके अधिकार दिलाने की अवाश्यकता है, जिस समाज में सभी को समान रूप से जीने का अधिकार है उस समाज में विधवाओं का यह अधिकार क्यों छीन लिया जाता है, उनका शोषण क्यों किया जाता है ? क्यों उन्हें अनदेखा किया जाता है ? क्यों उन्हें अछूत की दृष्टि से देखा जाता है ? क्यों उनके साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है ? क्या वे समाज का अंग नही है ? क्यों उनके प्रति दुर्भावना रखी जाती है ? उनके साथ ऐसा नही किया जाना चाहिए उन्हें समाज में समानता का दर्जा दिया जाना चाहिए । अगर वे फिर से विवाह करना चाहती हैं तो विरोध करने की बजाये उनका साथ देना होगा, वे अगर नई जिन्दगी की शुरुआत करने का सपना देखती हैं, तो उनके अंदर सपने सकार करने का हौसला भरना चाहिए । उनकी शोषित, दुखभरी, अनदेखी दुनिया को समाप्त कर फिर से उनके जीवन को खुशियों से भर देना चाहिए । क्योंकि रीति-रिवाज इंसान के लिए हैं न कि इंसान रीति-रिवाज के लिए, अगर किसी अच्छे काम के लिए रीति-रिवाज को बदलना पड़े तो हमे बदल देना चाहिए ।

लेखक - सत्यम सिंह बघेल

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.