पिछले कुछ वर्षों से लगातार सूखा एवं जल संकट से जूझ रहे बुन्देलखण्ड में मार्च के महिने में वहां के किसानों और मजदूरों के परिवारों द्वारा अन्न की कमी के कारण घास की रोटी खाने का मामला प्रकाश में आने के बाद प्रशासन हरकत में आया था और प्रदेश सरकार व केंद्र सरकार की टीमें हालत का जायजा लेने वहां पहुंची थी। उसके बाद ही केंद्र की ओर से राहत पैकेज का ऐलान हुआ था जिसे प्रदेश सरकार ने अपेक्षा के मुताबिक नाकाफी बताया था और कहा कि प्रदेश सरकार के इंतजाम काफी हैं और उन्हें केन्द्रीय मदद की जरूरत नहीं है। लेकिन पिछले हफ्ते तक मामला सुर्ख़ियों में बने रहने तथा रेल मंत्रालय द्वारा पानी की एक ट्रेन झांसी भेजने के बाद फिर शुरू हुआ चिर-परिचित राजनीतिक ड्रामा। वर्षों पहले प्रख्यात फिल्म निर्माता एमएस. सथ्यू की फिल्म ‘सूखा’ (1980) के अंत में डायलॉग था कि इस देश में सूखे पर भी राजनीति होती है। हालात इन 36 वर्षों में कुछ भी बदले नहीं हैं ।
केंद्र सरकार ने लातूर की तर्ज पर सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड की प्यास बुझाने के लिये जल ट्रेन भेजी लेकिन यूपी की अखिलेश सरकार ने ट्रेन का पानी लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि बुन्देलखण्ड में पर्याप्त पानी है और राहत कार्य चल रहें हैं । यह केवल पानी के मुद्दे पर राज्य और केन्द्र सरकार के बीच बुंदेलखण्ड में राहत का श्रेय लेने की होड़ का नतीजा है। राज्य सरकार को भय है कि केंद्र व विपक्षी दल यह संदेश देने में कामयाब रहेंगे कि प्रदेश सरकार पानी मुहैया कराने में ठीक से काम नहीं कर रही है। हालांकि पानी की ट्रेन भेजने के पीछे रेल मंत्रालय की ऐसी कोई मंशा नहीं है। वैसे भी पहले से ही केन्द्र का गंगा सफाई अभियान अखिलेश सरकार की आंख की किरकिरी बना हुआ है। अब पानी की ट्रेन के मामले ने अखिलेश सरकार को और डरा दिया। डर यही है कि श्रेय केन्द्र की मोदी सरकार को न मिल जाए। केन्द्र के हर कार्य को राजनीति के चश्मे से देखने की सपा की फितरत ने सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड के लोगों तक पानी की ट्रेन पहुंचने ही नही दिया । सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड से लोगों का पलायन रोकने में सपा सरकार कोई ठोस उपाय धरातल पर नहीं ला पाई। लोगों के पास रोजगार नहीं है और खाद्यान्न संकट बना हुआ है। किसान लगातार आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। पानी के लिए देश बहुत हद तक मॉनसून पर निर्भर है, पिछले दो सालों से कमजोर मॉनसून ने हालात और बिगाड़ दिए। उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड का क्षेत्र जो लगातार चार वर्षो से सूखे की मार से जूझ रहा है, इन दिनों आखिर बुंदेलखंड उस हालत में पंहुच गया जिसके बारे में पांच महिने पहले ही चेताया गया था। पिछले तीन महिनों में दिल्ली, भोपाल और लखनऊ के चार सौ से ज्यादा बड़े पत्रकार बुंदेलखंड का दौरा कर चुके हैं। लेकिन बुंदेलखंड की व्यथा कथाएं लिखने के अलावा वे भी ज्यादा कुछ सुझा नहीं पाए। हर दिन किसानों की मौतों की गिनती करते रहने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पाया।
यह इलाका एक भरे पूरे प्रदेश के बराबर है। आबादी दो करोड़ है। इसे एक नजर में देखना और दिखाना दो-चार हफ्ते का काम नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि समझने की कोशिश बिल्कुल भी न हुई हो। हां यह अलग बात है कि देश और विश्व के स्तर पर बुंदेलखंड को समझने की जितनी भी कोशिशें हुईं वे जल प्रबंधन की प्राचीन पद्धतियों को जानने और जटिल भौगालिक परिस्थितियों को समझने की ज्यादा हुईं। सत्तर के दशक में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रुचि वाला बंगरा वाटरशेड अध्ययन हो या अस्सी के दशक में किया गया चंदेलकालीन जल विज्ञान का अध्ययन, किसी का भी फायदा सीधे-सीधे बुंदेलखंड को मिल नहीं पाया। कारण एक ही रहा कि इलाका इतना बड़ा है कि उसके लिए राजनीतिक ईमानदारी और अच्छी खासी रकम की जरूरत थी। इस बात को इसी स्तंभ में कई बार तथ्यों के आधार पर बताया जा चुका है।
उत्तर प्रदेश में सोनभद्र से लेकर महोबा तक जल संकट अब तक के सबसे भयावह रूप में खड़ा है। खेती किसानी तो पहले से चौपट हो चुकी थी अब गृहस्थियां तबाह हो रही है, जल संकट की वजह से रोजगार ठप्प है वहीँ अंतर्राज्यीय पलायन चरम पर पहुँच गया है। गौरतलब है कि अकेले सोनभद्र जनपद से 50 से 60 हजार आदियासियों के पलायन की खबर है। खबर चौंकाने वाली मगर सच है कि पानी के अभाव में पूरे राज्य में हजारों की संख्या में मवेशियों की मौत हुई है, सोनभद्र में पिछले एक सप्ताह के दौरान कई जानवरों ने जंगलों में पानी न मिलने पर पत्थर पर सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी है। यूपी में 55 जिलों में सूखे की मार है , लेकिन सरकारी तंत्र इस विपदा से निबटने में न सिर्फ नाकाम रहा है बल्कि उसका रवैया असंवेदनशील भी है। ऐसा नहीं है कि सरकारें प्रयास नहीं कर रही हैं, लेकिन आपको समझना यह है कि क्या यह प्रयास पर्याप्त है, कितना बुनियादी हल है, कितना नाम के लिए और कितना दिखावे के लिए।
आज बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात में सरकारें अपना मुंह छिपाने के लिए बुंदेलखंड में कुछ लोगों को रोटी और पानी बंटवाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं। वहां मौतों और थोक में पलायन को रोका नहीं जा सकता है। लेकिन हॉ ! अगले साल फिर ऐसे हालात से बचने के बारे में तो सोच ही सकते हैं। राज्य एवं केंद्र सरकारें तथा सभी जन प्रतिनिधि एक बार तसल्ली से बैठकर, गंभीरता से बैठकर, ईमानदारी से बैठकर जल संकट से बचने के ठोस एवं बृहद रूप से तथा स्थाई रूप से योजना बनाने के उपाय ढूंढे ।
उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि आपस में लड़ते रहने से मीडिया में तो बना रहा जा सकता है लेकिन वे काम नहीं हो सकते जो राजनीति के उद्देश्यों में शामिल हैं।
अगर अगले वर्ष जल संकट से बचना है तो अभी से लगना पड़ेगा। सिर्फ लगना ही नहीं पड़ेगा बल्कि युद्ध स्तर पर जुटना पड़ेगा।
सत्यम सिंह बघेल
केंद्र सरकार ने लातूर की तर्ज पर सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड की प्यास बुझाने के लिये जल ट्रेन भेजी लेकिन यूपी की अखिलेश सरकार ने ट्रेन का पानी लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि बुन्देलखण्ड में पर्याप्त पानी है और राहत कार्य चल रहें हैं । यह केवल पानी के मुद्दे पर राज्य और केन्द्र सरकार के बीच बुंदेलखण्ड में राहत का श्रेय लेने की होड़ का नतीजा है। राज्य सरकार को भय है कि केंद्र व विपक्षी दल यह संदेश देने में कामयाब रहेंगे कि प्रदेश सरकार पानी मुहैया कराने में ठीक से काम नहीं कर रही है। हालांकि पानी की ट्रेन भेजने के पीछे रेल मंत्रालय की ऐसी कोई मंशा नहीं है। वैसे भी पहले से ही केन्द्र का गंगा सफाई अभियान अखिलेश सरकार की आंख की किरकिरी बना हुआ है। अब पानी की ट्रेन के मामले ने अखिलेश सरकार को और डरा दिया। डर यही है कि श्रेय केन्द्र की मोदी सरकार को न मिल जाए। केन्द्र के हर कार्य को राजनीति के चश्मे से देखने की सपा की फितरत ने सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड के लोगों तक पानी की ट्रेन पहुंचने ही नही दिया । सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड से लोगों का पलायन रोकने में सपा सरकार कोई ठोस उपाय धरातल पर नहीं ला पाई। लोगों के पास रोजगार नहीं है और खाद्यान्न संकट बना हुआ है। किसान लगातार आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। पानी के लिए देश बहुत हद तक मॉनसून पर निर्भर है, पिछले दो सालों से कमजोर मॉनसून ने हालात और बिगाड़ दिए। उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड का क्षेत्र जो लगातार चार वर्षो से सूखे की मार से जूझ रहा है, इन दिनों आखिर बुंदेलखंड उस हालत में पंहुच गया जिसके बारे में पांच महिने पहले ही चेताया गया था। पिछले तीन महिनों में दिल्ली, भोपाल और लखनऊ के चार सौ से ज्यादा बड़े पत्रकार बुंदेलखंड का दौरा कर चुके हैं। लेकिन बुंदेलखंड की व्यथा कथाएं लिखने के अलावा वे भी ज्यादा कुछ सुझा नहीं पाए। हर दिन किसानों की मौतों की गिनती करते रहने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पाया।
यह इलाका एक भरे पूरे प्रदेश के बराबर है। आबादी दो करोड़ है। इसे एक नजर में देखना और दिखाना दो-चार हफ्ते का काम नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि समझने की कोशिश बिल्कुल भी न हुई हो। हां यह अलग बात है कि देश और विश्व के स्तर पर बुंदेलखंड को समझने की जितनी भी कोशिशें हुईं वे जल प्रबंधन की प्राचीन पद्धतियों को जानने और जटिल भौगालिक परिस्थितियों को समझने की ज्यादा हुईं। सत्तर के दशक में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रुचि वाला बंगरा वाटरशेड अध्ययन हो या अस्सी के दशक में किया गया चंदेलकालीन जल विज्ञान का अध्ययन, किसी का भी फायदा सीधे-सीधे बुंदेलखंड को मिल नहीं पाया। कारण एक ही रहा कि इलाका इतना बड़ा है कि उसके लिए राजनीतिक ईमानदारी और अच्छी खासी रकम की जरूरत थी। इस बात को इसी स्तंभ में कई बार तथ्यों के आधार पर बताया जा चुका है।
उत्तर प्रदेश में सोनभद्र से लेकर महोबा तक जल संकट अब तक के सबसे भयावह रूप में खड़ा है। खेती किसानी तो पहले से चौपट हो चुकी थी अब गृहस्थियां तबाह हो रही है, जल संकट की वजह से रोजगार ठप्प है वहीँ अंतर्राज्यीय पलायन चरम पर पहुँच गया है। गौरतलब है कि अकेले सोनभद्र जनपद से 50 से 60 हजार आदियासियों के पलायन की खबर है। खबर चौंकाने वाली मगर सच है कि पानी के अभाव में पूरे राज्य में हजारों की संख्या में मवेशियों की मौत हुई है, सोनभद्र में पिछले एक सप्ताह के दौरान कई जानवरों ने जंगलों में पानी न मिलने पर पत्थर पर सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी है। यूपी में 55 जिलों में सूखे की मार है , लेकिन सरकारी तंत्र इस विपदा से निबटने में न सिर्फ नाकाम रहा है बल्कि उसका रवैया असंवेदनशील भी है। ऐसा नहीं है कि सरकारें प्रयास नहीं कर रही हैं, लेकिन आपको समझना यह है कि क्या यह प्रयास पर्याप्त है, कितना बुनियादी हल है, कितना नाम के लिए और कितना दिखावे के लिए।
आज बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात में सरकारें अपना मुंह छिपाने के लिए बुंदेलखंड में कुछ लोगों को रोटी और पानी बंटवाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं। वहां मौतों और थोक में पलायन को रोका नहीं जा सकता है। लेकिन हॉ ! अगले साल फिर ऐसे हालात से बचने के बारे में तो सोच ही सकते हैं। राज्य एवं केंद्र सरकारें तथा सभी जन प्रतिनिधि एक बार तसल्ली से बैठकर, गंभीरता से बैठकर, ईमानदारी से बैठकर जल संकट से बचने के ठोस एवं बृहद रूप से तथा स्थाई रूप से योजना बनाने के उपाय ढूंढे ।
उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि आपस में लड़ते रहने से मीडिया में तो बना रहा जा सकता है लेकिन वे काम नहीं हो सकते जो राजनीति के उद्देश्यों में शामिल हैं।
अगर अगले वर्ष जल संकट से बचना है तो अभी से लगना पड़ेगा। सिर्फ लगना ही नहीं पड़ेगा बल्कि युद्ध स्तर पर जुटना पड़ेगा।
सत्यम सिंह बघेल
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