Tuesday, May 10, 2016

आगस्ता पर असमंजस कब तक

बोफोर्स के बाद सबसे बड़े कथित रक्षा घोटाले अगस्ता हेलिकॉप्टर खरीदी में करप्शन को लेकर राज्यसभा में हुई चर्चा के बाद कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में तीन महीने के अंदर जांच पूरी कर अगले सत्र में रिपोर्ट पेश किए जाने की चुनौती देकर मोदी सरकार को असमंजस में डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाल ही में मनोनीत सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा उछाले गए भ्रष्टाचार से जुड़े इस हाईप्रोफाइल मामले में बीजेपी ने भी सदन के बाहर और अंदर आक्रामक रुख अपनाया लेकिन कोई बड़ा सबूत प्रमाणिकता के साथ सामने नहीं ला पाई जिससे कांग्रेस बैकफुट पर जाने को मजबूर हो।  करीब 5 घंटे चली कार्रवाई के दौरान सदन में बचाव, सवाल-जवाब, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा ।

राज्यसभा में इस चली बहस में चर्चा की शुरुआत बीजेपी सांसद भूपेंद्र यादव ने की। यादव ने कहा, यूपीए सरकार ने घूस लेने वालों की जांच क्यों नहीं कराई?
इसके बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने राज्यसभा में मामले की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा कि NDA ने पहली बार 1998 में 6 पुराने हेलिकॉप्टर की जगह 8 नए चॉपर की डील की बात की। उस समय हेलिकॉप्टर की हाइट 6000 मीटर तक ले जाने की बात कही गई थी। यूपीए-1 के टेन्योर में हेलिकॉप्टर की लिमिट को 4500 मीटर कर दिया। ये कहना गलत है कि एनडीए सरकार ने हेलिकॉप्टर की हाइट के स्पेसिफिकेशन को चेंज कर दिया। तब डिफेंस मिनिस्टर ने इसे चेंज करने की बात को माना। वीवीआईपी हेलिकॉप्टर लेने का मकसद ज्यादा हाइट वाले इलाकों जैसे सियाचिन में उड़ान भरना था। 6000 मीटर की ऊंचाई पर उड़ने में कैपेबल हेलिकॉप्टर मंगाने का मकसद उसे शोल्डर रॉकेट की रेंज से भी बाहर रखना था। उन्होंने फील्ड में AW101 एयरक्राफ्ट का यूज नहीं किया। उन हेलिकॉप्टर का यूज किया, जिनमें खराबी थी। ओरिजिनल प्रपोजल 8 हेलिकॉप्टर को खरीदने की बात कही गई थी। अगस्ता ही एक ऐसी कंपनी थी जो पैरामीटर पर क्वालिफाई कर सकी। लेकिन उन्होंने 4 और खरीदे। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक 1988 में 8 हेलिकॉप्टर खरीदे गए थे, जिनका यूज कम हुआ था। इसके बाद 4 अन्य को खरीदने की जरूरत क्यों पड़ी? ट्रायल भी विदेश में किया गया।
इसके बाद चर्चा के दौरान यूपीए सरकार में डिफेंस मिनिस्टर रहे एंटनी ने कहा कि डिफेंस प्रॉक्योरमेंट में हमने कभी भी करप्शन को टॉलरेट नहीं किया। यूपीए सरकार ने ही 6 कंपनियों को ब्लैकलिस्ट किया था। आज आप हम पर सवाल उठा रहे हैं। आप सोनियाजी, मनमोहनजी पर सवाल उठा रहे हैं? नवंबर 2003 में ही तय हो गया था कि हेलिकॉप्टर की उड़ान भरने की ऊंचाई 6000 मीटर से घटाकर 4500 मीटर तक रखी जा सकती है। इस मीटिंग में तब के पीएम के सेक्रेटरी मौजूद थे। केबिन हाईट 1.8 मीटर्स तय की गई थी। हमने कार्रवाई की। डील कैंसल की। जांच कराई। मौजूदा सरकार हमें ब्लैकमेल ना करे। स्वामीजी। हमें धमकाएं नहीं। आपके साथ सबूत हैं तो जांच कराएं, हम पर मुकदमे चलाएं। पर धमकाएं नहीं।

मामले में सफाई देते हुए कांग्रेस नेता सिंघवी ने कहा कि हमने सीबीआई जांच करवाई है। सरकार सेंस से सोचे, सेंसेशनलिज्म को छोड़े।
इतालवी कोर्ट ने साफतौर पर कहा, सोनिया गांधी के खिलाफ सबूत नहीं हैं। जजमेंट को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है। उनका नाम केवल उसी पर्सनैलिटी के तौर पर था जो उस वीवीआईपी हेलिकॉप्टर में सफर करतीं। हमें अपनी कोर्ट पर भरोसा क्यों नहीं है।
सिंघवी ने इतालवी कोर्ट के फैसले में कूट शब्दों के जिक्र पर कहा, 'AP' का अर्थ गुजरात की मुख्यमंत्री के नाम से भी हो सकता है।
आप किसी नाम से नफरत करते हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उन नामों को आप इस कूट नाम से जोड़ें। सिंघवी ने शेर से अपनी बात को खत्म किया, शाखों से टूट जाएं, वो पत्ते नहीं हैं हम। आंधियों से कह दो, औकात में रहें।

राज्यसभा में पांच घंटे से ज्यादा चली चर्चा का जवाब देते हुए डिफेंस मिनिस्टर मनोहर पर्रिकर ने कहा, आज अभिषेक मनु सिंघवी चले गए। उनका बड़ा नुकसान हो गया। इतनी अच्छी तरह उन्होंने मामला पेश किया कि एक बार तो मैं भी सोचने लगा। वे अच्छे वकील हैँ। लेकिन एक बात महसूस हुई कि अगर केस कमजोर तो अच्छा वकील भी उस मुकदमे को जीत नहीं सकता। एक कहानी सुनाना चाहता हूं। एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल को बुलाया। कहा- सोने का चम्मच चोरी हो गया है। बीरबल ने सारे नौकरों को बुलाया और कहा कि ये बांस पकड़ो। ये जादुई बांस है। जिसने चोरी की होगी, उसका बांस रातभर में चार इंच बढ़ जाएगा। जिसने चोरी की थी, वह बेचैन था। उसने अपना बांस चार इंच काट दिया। अगले ही दिन वह पकड़ा गया। लगता है कि आपने (कांग्रेस ने भी) अपने सारे बांस काट दिए हैं।
पर्रिकर ने कहा कि एंटनी ने खुद कहा था कि करप्शन हुआ है। एक ही वेंडर के फेवर में हालात बना दिए गए थे। इटली की कोर्ट ने डील में कई स्टेज पर नियमों के खिलाफ काम होने की बात कही है। एनडीए की सरकार ने हेलिकॉप्टर के स्पेसिफिकेशन नहीं बदले थे।  देश जानना चाहता है कि करप्शन किसने किया था? देश जानना चाहता है कि अगस्ता वेस्टलैंड डील से किसे फायदा हुआ? हम इसका पता लगाएंगे। हम इसे ऐसे ही नहीं जाने दे सकते। सरकार इसका पता लगाएगी। इटली की कोर्ट के फैसले में जितने भी लोगों के नाम हैं, उनके खिलाफ जांच होगी।
वस्तुतः भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर देश के दो बड़े नेता जिनकी छवि भारतीय राजनीति में ईमानदार नेता के रूप में बनी हुई है और प्रतिद्वंदी दल भी उनकी ईमानदारी के कायल हैं वो दो नेता मनोहर पारिकर और एके एंटोनी, एक वर्तमान रक्षा मंत्री और दूसरे पूर्व रक्षा मंत्री सदन में आमने सामने नजर आए तो इन दोनों की आड़ में कांग्रेस बीजेपी ने अपनी सरकारों के दौरान लिए फैसलों को सामने रखकर खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश की। सवाल  आखिर साख पर  जो खड़े हुए उनका क्या होगा चाहे वो स्वामी के आरोप हो या सफाई देने को मजबूर हुई सोनिया या फिर आरोप और सफाई के बीच मोदी सरकार की प्रमाणिकता के बीच संसद और देश जिस पर विश्व की नजर टिक गई है।
जांच होने के बाद ही पता चलेगा कि बात दूर तलक जाएगी या फिर खोदा पहाड़ और निकली चुहिया वाली कहावत चरितार्थ होगी।

सत्यम सिंह बघेल

किसान हितैषी बयानों से घिरी किसानों की दर्द भरी जिंदगी

किसान के लिए उसके खेत खलिहान और उसकी फसल ही उसका भविष्य, उसकी तरक्की, उसके अरमान, उम्मीदें, सबकुछ होती हैं । लेकिन जब सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि या फिर किसी कारण वश किसान की फसल नष्ट हो जाये तो उसका सबकुछ बर्बाद हो जाता है उसकी उम्मीदें बिखर जाती हैं, सपने चूर चूर हो जाते हैं . वर्तमान समय में भी सूखा पड़ने के कारण देश के अन्नदाता के यही हाल बने हुए हैं ।
देश के अधिकांश भागों में बारिश कम होने और सूखा पड़ने के कारण पिछले वर्ष खरीफ की फसल पूरी तरह नष्ट हुई थीं । इसके बाद ओलावृष्टि के कारण कुछ क्षेत्रों में रबी की फसल पूरी तरह चौपट हो चुकी है । इससे अन्नदाता कहे जाने वाले भारतीय किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है, वह अपनी बेहताशा आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है ।
किसानों का जीवन अस्त-व्यस्त और बेहाल है, जीना मुसकिल हो गया है । किसान खून के आंसू पीने पर मजबूर हैं । किसान आत्महत्या करने पर विवश हैं और हमारे देश की राजनैतिक दल एवं सरकार उसकी विवशता पर उसे सहयोग देने, आर्थिक मदद करने , उसका हौसला बढ़ाने की बजाये उसकी इस दशा पर सिर्फ अपनी राजनैतिक सियासत की गोटियाँ खेल रहे हैं । अब मप्र के किसानों के हाल ही देख लीजिये । वहां पिछले रबी के सीजन में भारी ओलावृष्टि से कुछ जगह फ़सलें पूरी तरह चौपट हो चुकी हैं । ओलावृष्टि से चौपट हुई फसलों का सर्वे भी हुआ। नुकसान की रिपोट भी तैयार हुई । उस समय ओलावृष्टि से पीड़ित किसानों की बदहाल दशा पर खूब राजनीति भी हुई । सभी दल के नेताओं ने खेतों में जाकर नष्ट हुई फसल और पीड़ित किसानों के साथ खूब फोटो निकलवाया । बढ़-चढ़कर बयान बाजी हुई । खूब घोषणाएं हुई, हर संभव मदद की दिलाशाएं दी गई । सरकार द्वारा बिजली बिल माफ़ करने, इस वर्ष ऋण वसूली स्थगित करने, पीड़ित किसानों को एक रुपया किलो चावल, नमक, गेहूं देने की घोषणा की गई, जल्द से जल्द मुआवजा देने का वादा किया गया लेकिन अभी तक किसानों को कोई मदद नही मिल पाई । समय बीता समय के साथ सारी घोषणा, अस्वासन, वादे सब के सब ठंडे बस्ते में चला गया, अब किसानों के हाल जानने वाला कोई नही है
ऐसा नही है कि किसानो की यह स्थिति केवल वर्तमान समय में है । किसानों की यह दयनीय दशा हमेशा से बनी हुई है । चाहे वह कांग्रेस की सरकार को या भाजपा की सरकार सभी के कार्यकाल में किसानों का शोषण हुआ है, उन्हें अनदेखा किया गया है, उनकी दयनीय दशा पर हमेशा से राजनीति हुई है ।
जब से देश आजाद हुआ तब से अपनी समस्याओं के चलते किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। आर्थिक तंगी से जूझ रहे किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं । राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार भारत भर में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्याएं की थी । 2009 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में 1172 की वृद्धि हुई थी, अत: 2009 के दौरान 17368 किसानों द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक रपट दर्ज हुई. राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के अनुसार 1994 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की हैं । सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रूक नहीं रहा है, देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं । वहीं केवल यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र में इस वर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 500 पहुँच गई है, इस क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में 5000 लोग आत्महत्या कर चुकें । बुंदेलखंड के लोग घास की रोटी और घास की ही चटनी खाने को मजबूर हैं ।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र की स्थिति सभी को मालूम है, जहाँ लोगों के पास पीने तक को पानी नही है उस क्षेत्र के किसानों की क्या दशा होगी । यह सब सोचकर मन बहुत ज्यादा विचलित हो जाता है । लेकिन किसानों की इस दुखदायी घड़ी में राजनैतिक दल उनका साथ देने और उनका सहयोग करने की बजाए, उनकी इस लाचारी एवं बेवसी पर राजनीति कर रहे हैं ।
हाल ही में कुछ माह पूर्व राहुल गाँधी ने किसानों से मिलने के लिए पद यात्रा किये थे। बड़ी आस लगाकर किसान उनसे मिलने पहुंचे कि हमें हमारी समस्या से निपटने के लिए, सूखे की मार से उभरने के लिए, बारिश की चपेट से बचने के लिए सुझाव दिए जायेंगे हमारी कुछ मदद की जाएगी । लेकिन यात्रा में ऐसा कुछ नहीं हुआ, वहां हुआ तो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और अपनी वोट बैंक की राजनीति बस, जो 65 वर्षों से हो रहा है । किसानो की कोई मदद नही, कोई सुझाव नही, किसानो की स्थिति आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है, चाहे विदर्भ या बुन्देलखण्ड हो या फिर अन्य क्षेत्र । ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस को अचानक से किसानों की याद आने लगी, क्या इसलिए कि कांग्रेस का अस्तित्व अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है ? क्या कारण है कि कांग्रेस किसानों की हितेषी बन गई, उसे देश में हो रही नित्य प्रति किसानों की आत्महत्याएं दिखाई देने लगी, उनकी छिनती हुई जमीन याद आने लगी, उन पर अपार सहानुभूति बरसने लगी ।
वैसे ये कोई नयी बात नहीं है ये तो हमेशा से ही हो रहा है, देश के अन्नदाता कहे जाने वाले किसानों के साथ छल कपट कर उनकी भावनाओं से खिलवाड़ हमेशा से ही होता चला आ रहा है, राजनैतिक पार्टियां सिर्फ अपनी वोट बैंक की राजनीति करती आयी हैं । हम लोग हमेशा से यही कहते-सुनते आ रहे हैं, भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह देश किसानों का देश है, इस देश के किसान भारत की जान हैं, शान हैं, किसान हमारा अन्नदाता है और ना जाने कितनी तरह की बातें करते हैं और सुनते हैं . इन बातों को अख़बारों, किताबों में पढ़ते-पढ़ते और भाषणों, समाचार चेनलों में सुनते सुनते वर्षों बीत गये, कई पीढियां गुजर गई, फिर भी आज इस देश में जो स्थिति किसानों की है वह किसी से छुपी नहीं है, किसान आज भी गरीब, लाचार, दुखी-पीड़ित और हर तरफ से मजबूर, तंग हालात में जीवन-यापन कर रहा है और राजनैतिक दल उसकी इस हालत पर राजनीति करने में लगे हुए हैं .
हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकारें आज इतने संवेदनशून्य हो चुकी हैं कि उन्हें किसानों की मौत पर कोई फर्क नहीं पड़ता । यही नहीं सरकारें किसानों की फसल खराब होने पर उन्हें मुआवजा राशि के रूप में 6₹, से लेकर 100₹ तक देती हैं । आख़िर ये जले पर नमक छिड़कना नहीं तो और क्या है ? किसान परिश्रम, बलिदान, त्याग और सेवा के आदर्श द्वारा देश का उपकार करता है, प्रकृति का वह पुजारी तथा धरती मां का उपासक है । धन से गरीब होने पर भी वह मन का अमीर और उदार होता है । किसान अन्नदाता है, वह समाज का सच्चा हितैषी है। उसके सुख़ में ही देश का सुख़ है और उसकी समृद्धि में ही देश की समृद्धि है । लेकिन फिर भी देश राजनैतिक दल किसानों के साथ छल-कपट की राजनीति कर रहें है और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, बार-बार सिर्फ कोरे वादे करके अपना प्रचार प्रसार करते हैं बस और कुछ नहीं । आज हम देख रहे हैं किसानों की दशा क्या है यह किसी से छुपी नहीं है, किसान आज भी गरीब, लाचार, दुखी-पीड़ित और हर तरफ से मजबूर, तंग हालात में जीवन-यापन कर रहा है
सरकारों द्वारा किसानों के लिए उचित कार्य जो करने चाहिए थे नहीं किया गया । तभी तो आज भी देश में कृषि शिक्षा के विश्वविध्यालय और कॉलेज नाम-मात्र के हैं, उनमें भी गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है। शिक्षा का ही दूसरा पहलू जिसे प्रबंधन शिक्षा की श्रेणी में रखा जा सकता है, नाम-मात्र भी नहीं है । राष्ट्रीय अथवा प्रदेश स्तर पर कृषि शिक्षा के जो विश्वविध्यालय हैं, उनमें शोध संस्थानों के अभाव में उच्चस्तरीय शोध समाप्त प्राय से हैं । कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ । जिन फसलों को किसान बोना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक जलवायु, पानी, भूमि आदि कैसा होना चाहिए । इसका परीक्षण कर संबंधित किसानों को शिक्षित किये जाने की भी व्यवस्था कराई जानी चाहिए ताकि वह सुझावानुसार कार्य करने के लिए सहमत हो। इस हेतु अच्छी प्रजाति के बीजों की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए, बीज की बुवाई के समय कृषि क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ अपनी देखरेख में बुवाई कराएं तथा उन पर होने वाली बीमारियों, आवश्यक उर्वरकों, सिंचाई, निकाई, निराई, गुड़ाई आदि का कार्य आवश्यकतानुसार समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों के निर्देशन में कराया जाना चाहिए, इससे उत्पादन बढ़ेगा एवं किसान समृद्ध होगा । किसान समृद्ध होगा तभी तो देश समृद्ध होगा ।

लेखक – सत्यम सिंह बघेल

बलात्कार घटनाएं : शर्मसार होती मानवता

वर्तमान समय में हमारे देश में बलात्कार जैसी अमानवीय दुर्घटनाओं ने समाज को झकझोर कर रख दिया है । अखबार में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में एक सात साल की बच्ची से बलात्कार किए जाने का शर्मनाक घटना के बारे में पढ़कर मै अंदर से हिल गया हूँ । क्योंकि बच्ची की अस्मत लूटने वाला और कोई नहीं बल्कि उसका नाबालिग फुफेरा भाई है । 14 साल का किशोर अपनी रिश्ते की सात वर्षीय बहन को मोटर साइकिल से घुमाने ले गया । वापस लौटकर आया तो अपने घर के एक कमरे में उसने जबरन लड़की के साथ बलात्कार किया । कितनी निंदनीय, शर्मनाक और दुखद बात है । मैंने जब से उस कुकृत्य के बारे मे पढ़ा हूँ । मन बहुत व्यथित है । यह सब पढ़कर और आज लिखते हुए मेरी आँखों में आंसू आ गये लेकिन उन दरिन्दों ने कितनी क्रूरता वर्ती उन्हें जरा भी दया न आई, उन माता पिता पर और उस मासूम पर भी जिसे हमारे देश में देवी मानकर उपासना की जाती है |
आदर्शों व महान नैतिक मूल्यों की संस्कृति की नींव पर विकसित हुए इस राष्ट्र में बलात्कार की घटनायें मुख्य चुनौती बन चुकी हैं | शैतानी क्रूरता की शिकार नारी की विवशता हर दिन समाचार पत्र, न्यूज चैनल के माध्यम से देखने, पढ़ने, सुनने को मिल रही हैं, जो देश की कानून व्यवस्था और सभ्य समाज की मुकबधिरता पर सवालिया निशान खड़ा कर रहीं हैं | जब यही अतिअमानवीय घटना दिल्ली में घटी थी तब उस घटना के बाद से राक्षसी मानसिकता एवं व्यवस्था के विरुद्ध उठने वाले देशव्यापी आक्रोश ने जिस प्रकार पहल की थी, उससे लग रहा था कि यह व्यापक जनाक्रोश निःसन्देह ही मौकापरस्त व ढर्रावादी राजनीति के लिए एक चुनौती तथा व्यवस्था के लिए एक शुभ संकेत है | पहली बार बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ एक आन्दोलन का रूप लिया था व सम्पूर्ण सामाजिक विभीषिका पर एक राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ी थी | आन्दोलन की व्यापकता देखकर यही कहा जा सकता था कि वर्षों से मौन भारतीय समाज अब जाग चुका है, बदलाव की बहार चल पड़ी है, देश में हमारे सभ्य समाज को कलंकित करने वाली जो अमानवीय घटनायें घट रहीं हैं उनमे बेशक अंकुश लगेगा, उन बदन पिपासुओं के खिलाफ अवश्य कठोर कानून बनेगा | उस समय उस पीड़ाप्रद व निराशाजनक वातावरण में यही थोड़ा सन्तोषप्रद था और उसी आधार पर अधिकतर बुद्धिजीवियों ने उस आन्दोलन को नई पीढ़ी की नेतृत्वहीन क्रान्ति के रूप में परिभाषित करते हुए एक नए दौर की निश्चित भविष्यवाणी तक कर डाली थी |
लेकिन उस समय किसी को क्या मालूम था कि यह आन्दोलन तो सिर्फ एक हवा के झोखे जैसा है, जो चंद समय के लिए मौका परस्ती के चलते उग्र हुआ है, कुछ दिन बाद फिर से वही होगा जो पहले से चला आ रहा है और हुआ भी वही कुछ दिन बाद आन्दोलन शांत | साथ ही सब कुछ जैसा की तैसा न ही उन बदन पिपासुओं के लिए कठोर दंड का प्रावधान बना न ही बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी हुई | बल्कि इसके विपरीत देश में बलात्कार जैसी अतिअमानवीय दुर्घटनाओं में वृद्धि हुई है | रूह काँप उठती है इन क्रूर दुर्घटनाओं के बारे में सुनकर-पढ़कर, आज हालत ऐसे बन चुके हैं कि अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले कुछ सालों में बलात्कार की घटनाओं में लगातार निरशाजनक इजाफा देखने को मिला है | इस बावत अगर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के द्वारा जारी किये गए आंकड़ों पर नजर डाली जाये तो भारत में प्रतिदिन 60 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटानाओं को अंजाम दिये जाने की बात सामने आती है | हम देखें तो आज नैतिक मूल्यों को खोते हुए भारत में बलात्कार सबसे तेजी से बढ़ता अपराध है जिसमें आकड़ों से स्पष्ट होता है कि जहाँ 1971 में 2487 बलात्कार की घटनायें घटी वहीं 2011 में ये अमानवीय घटनायें बढ़कर 24206 हुई इस तरह 873.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वही एक अन्य आंकड़े में ऐसा बताया गया है कि भारत में बलात्कार के ग्राफ में 30 प्रतिशत की रफ़्तार से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है जो कि देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाला आंकड़ा है | सन 2010 की अपेक्षा सन 2011 में लगभग बलात्कार के दो हजार मामले ज्यादा सामने आये और उसके बाद एक अनुमान के मुताबिक़ सन 2012, 2013, 2014 में भी इसी अनुपात में बलात्कार की अमानवीय दुर्घटनाओं में इजाफा हुआ है | आदर्शों व महान नैतिक मूल्यों की संस्कृति की नींव पर विकसित हुए इस राष्ट्र में आज प्रत्येक 22वें मिनट किसी भेड़िये द्वारा एक विवश नारी की अस्मिता को तार तार किया जाता है, ये तो वो आकडे हैं जो पीड़ित द्वारा पुलिस में शिकायत की जाती है, सोचिए ये आंकड़े इससे भी कही ज्यादा होंगे क्योंकि अभी भी 80% स्त्रियाँ लोकलाज, गरीब, असहाय या अशिक्षित होने के कारण थाने तक पहुँच ही नहीं पाती हैं। और हमारे देश की कानून व्यवस्था और हमारा सभ्य समाज क्यों इस तरह मौन साधे सिर्फ तमाशा देखने में मग्न है ?
नित्य प्रति हो रही क्रूरता की हर सीमा को लांघने देने वाली कुकृत्य दुर्घटनाओं से आधी दुनिया के नाम से जानी जाने वाली महिलायें आज घरों सड़कों पर खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर पा रहीं हैं | देश में यही स्थिति रही तो आने वाले समय में महिलाओं की स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है |
वर्तमान समय में निरंतर हो रही बलात्कार की घटनाओं की वृद्धि ने सिर्फ हमारी सुरक्षा व्यवस्था ही नहीं बल्कि तमाम सामाजिक पहलुओं को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है | देश में जिस तरह से महिलाओं एवं लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ और बलात्कार के सिलसिलेवार मामले एक के बाद एक सुर्ख़ियों में आ रहे हैं, सभी ने क़ानून व्यवस्था के साथ-साथ इस बात पर सवाल उठाये हैं कि आखिर हमारा भारत किस संस्कृति की तरफ जा रहा है ? क्या हम इतने अंधे हो चुके हैं कि सामाजिक संवेदनाए हमारे लिए मायने नहीं रखती या कहीं ना कहीं कोई ऐसा कारक है जो समाज की वर्तमान पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहा है | निश्चित तौर पर इसके आंकड़ों में तेजी से जो वृद्धि हुई है, वे देश में महिलाओं की स्थिति एवं उनके प्रति असंवेदनशील होते समाज एवं लचर प्रशासनिक व्यवस्था को दिखाने के लिए पर्याप्त हैं |
आज तेजी से बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं को समाज के मुख्य धारा का विषय मानकर इसे पूर्ण रूप से रोकने के लिए  हर संभव प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, इसके लिए भारतीय समाज के हर घटक को एक साथ संगठित होकर इसके खिलाफ मजबूती से खड़े होने की आवश्यकता है, महिलाओं की अस्मिता एवं समाज के लिए कलंक बन चुकी इस हैवानियत के विरुद्ध शासन, प्रशासन, समाज, कानून सबको एक साथ सजग होने की जरुरत है ना कि सब अपनी ढपली अपना राग बजाएं | साथ ही तेजी से बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ कठोर से कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है, आरोपी को जेल तक की सजा देने से मामला बनता नहीं दिख रहा तो उन दंड नीतियों पर भी अमल किया जाना चाहिए जिससे बलात्कारी के अंदर सामाजिक प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव उत्पन्न हो और वो समाज के सामने अपने किये पर प्रायश्चित करे, साथ ही रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से बलात्कारी को नपुंसकता की स्थिति में लाने की प्रक्रिया को दंड प्रावधान में शामिल किया जाना चाहिए ।

सत्यम सिंह बघेल

गांधी परिवार : आगस्ता और बोफोर्स

आगस्ता वेस्टलैण्ड हेलीकॉप्टर का मुद्दा
मीडिया, सोशल मीडिया और संसद से लेकर सड़क तक देश में हर जगह बहस का विषय बना हुआ है । यह मामला भारत द्वारा आगस्ता वेस्टलैण्ड कम्पनी से खरीदे गए हेलिकॉप्टरों से सम्बन्धित है जो 2013-14 में सामने आया। इसमें कई भारतीय राजनेताओं एवं सैन्य अधिकारियों पर आगस्ता वेस्टलैण्ड से मोटी घूस लेने का आरोप है। इसी तरह का एक और मामला था बोफोर्स इसमे भी कई भारतीय राजनेताओं एवं सैन्य अधिकारियों पर घूस लेने का अरोप था । बोफोर्स कांड के मामले में सन् 1987 में यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया। इस खुलासे ने भारतीय राजनीति में खलबली मचा दी और राजीव गांधी इसके निशाना बने। 1989 के लोकसभा चुनाव का ये मुख्य मुद्दा था जिसने राजीव गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया और वीपी सिंह राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री बने। और साथ ही बोफोर्स कांड राजीव गांधी को इस कदर ले डूबा कि वे इससे जीवन पर्यन्त उभर ही नही पाये । बोफोर्स मामला ने उनका राजनैतिक कैरियर ही खत्म कर दिया था ।
आरोप था कि राजीव गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की, जिसके बदले में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। कुल चार सौ बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। आरोप है कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड़ डालर की रिश्वत बांटी थी। काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने पर सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह सीबीआई चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोक्की को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई ऐसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोक्की को राहत मिलती गयी।

अब वर्तमान मामला है आगस्ता वेस्टलैंड हेलीकाप्टर खरीदी का । इस मामले में यूपीए-1 सरकार के वक्त 2010 में अगस्ता वेस्टलैंड से वीवीआईपी के लिए 12 हेलिकॉप्टरों की खरीद की डील हुई थी। डील के तहत मिले 3 हेलिकॉप्टर आज भी दिल्ली के पालम एयरबेस पर खड़े हैं। इन्हें इस्तेमाल में नहीं लाया गया। डील 3,600 करोड़ रुपए की थी। टोटल डील का 10 फीसदी हिस्सा रिश्वत में देने की बात सामने आई थी। इसके बाद यूपीए सरकार ने फरवरी 2010 में डील रद्द कर दी थी।
तब एयरफोर्स चीफ रहे एसपी त्यागी समेत 13 लोगों पर केस दर्ज किया गया था। जिस मीटिंग में हेलीकॉप्टर की कीमत तय की गई थी, उसमें यूपीए सरकार के कुछ मंत्री भी मौजूद थे। इस वजह से कांग्रेस पर भी सवाल उठे थे।
मिलान कोर्ट ऑफ अपील्स ने दिए फैसले में माना है कि इस हेलिकॉप्टर डील में करप्शन हुआ है और इसमें इंडियन एयरफोर्स के पूर्व चीफ एसपी त्यागी भी शामिल थे। 90 से 225 करोड़ रुपए की रिश्वत भारतीय अफसरों को दी गई। कोर्ट ने वीवीआईपी हेलिकॉप्टर देने वाली कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड के चीफ जी. ओरसी को दोषी ठहराया है। उन्हें साढ़े चार साल जेल की सजा सुनाई गई है।
इटली की मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, कोर्ट ने अपने जजमेंट में बताया है कि अगस्ता वेस्टलैंड ने कैसे कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गांधी और उनके करीबी सहयोगियों जैसे पीएम मनमोहन सिंह और नेशनल सिक्युरिटी एडवाइजर एमके नारायणन के साथ लॉबिंग की। कोर्ट ने अपने फैसले में चार बार सोनिया गांधी और दो बार मनमोहन सिंह का नाम लिया है।
बोफोर्स के बाद सबसे बड़े कथित रक्षा घोटाले अगस्ता हेलिकॉप्टर खरीदी में करप्शन को लेकर राज्यसभा में हुई चर्चा के बाद कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में तीन महीने के अंदर जांच पूरी कर अगले सत्र में रिपोर्ट पेश किए जाने की चुनौती देकर मोदी सरकार को असमंजस में डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाल ही में मनोनीत सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा उछाले गए भ्रष्टाचार से जुड़े इस हाईप्रोफाइल मामले में बीजेपी ने भी सदन के बाहर और अंदर आक्रामक रुख अपनाया लेकिन कोई बड़ा सबूत प्रमाणिकता के साथ सामने नहीं ला पाई जिससे कांग्रेस बैकफुट पर जाने को मजबूर हो।  करीब 5 घंटे चली कार्रवाई के दौरान सदन में बचाव, सवाल-जवाब, आरोप-प्रत्यारोप का दौर ही चलता रहा ।

वस्तुतः देखा जाये तो बोफोर्स और आगस्ता दोनो मामलों में बहुत अधिक समानताएं हैं । मामलों का संबंध मुख्यरूप गांधी परिवार से जुड़ा हुआ है । दोनो मामले रक्षा क्षेत्र से जुड़े हैं । दोनो मामलों में भारतीय राजनेताओं तथा सैन्य अधिकारियों पर घूस लेने का आरोप है । दोनो मामले इटली से जुड़े हैं । दोनो मामलों में बिचोलियों ने मध्यस्था की भूमिका निभाई है । बोफोर्स घोटाला में राजीव गांधी का नाम आया था और इस कारण राजीव गांधी को सत्ता से बाहर हो गए थे । साथ बोफोर्स कांड राजीव को इस कदर ले डूबा कि वे इससे जीवन पर्यन्त उभर ही नही पाये । बोफोर्स मामला ने उनका राजनैतिक कैरियर ही खत्म कर दिया था । आगस्ता वेस्टलैंड में सोनिया गांधी का नाम सामने आया है। अब देखना यह दिलचस्प होगा कि यह मामला सोनिया गांधी के राजनैतिक जीवन को कितना प्रभावित करता है । इस मामले में घिरकर सोनिया गांधी का राजनैतिक उम्मीद से पहले ही समाप्त हो जायेगा या फिर आगे भी उनका वर्चस्व कायम रहेगा ।

सत्यम सिंह बघेल

बुंदेलखण्ड में सूखा संकट और सियासत

स्वतन्त्रता प्राप्ति के वर्षों बाद भी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का बुंदेलखण्ड क्षेत्र सूखे का शिकार है । उत्तर प्रदेश के पचास से अधिक जिलों में सूखे की मार पड़ी है, जिससे भूख-प्यास से लोगों के दम तोड़ने की भी खबरें आई हैं। इस पूरे क्षेत्र में कृषि ही लोगों के जीवन यापन का मुख्य आधार है। सिंचाई के लिए जल न होने के कारण क्षेत्र में अकाल जैसे हालात हो गए हैं। लोग किसानी छोड़कर मजदूरी करने को बाध्य हो गए हैं। भुखमरी जैसे हालात से गुजर रहे इस क्षेत्र में अन्य समाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। क्षेत्र से लोगों का पलायन जारी है। बच्चों के स्कूल छोड़कर बालमजदूरी करने की घटनाओं में 24 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। पौष्टिक भोजन नहीं मिलने से बच्‍चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। सूखा और गरीबी के कारण घास की रोटी खाने और गड्ढे का पानी पीने को मजबूर हैं । सूखे से निपटने में अक्षम माता पिता द्वारा अपने बच्चों को बेचने तक की घटनाएं सामने आ रही हैं।
वहीं राजनैतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चालू है, प्यासे बुन्देलखण्ड को लेकर दलों के बीच सियासत जोरों पर है । वैसे तो बुंदेलखण्ड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता है लेकिन केन्द्र और राज्य में सरकार किसी की भी हो सभी ने प्रकृति की नियति को नजर अंदाज ही किया है। मनमोहन सिंह सरकार ने बुंदेलखण्ड के लिए पैकेज दिया था लेकिन इस क्षेत्र में समस्या नहीं सुलझी लोग घास खाने को मजबूर हैं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जब बुंदेलखण्ड में पद यात्रा के लिए पहुंचे तब महिलाओं ने अपनी दर्द भरी दास्तां सुनाई । कि जब बच्चे रात में खाना मांगते हैं तो महिलाएं उन्हें रोटी देने की बजाए चाटें मारकर सुला देती हैं क्योंकी उनके पास इतना अनाज नहीं की बच्चों को कई बार खाना और दूध दे सकें। ये दास्तान बुंदेलखण्ड के हर  घर की है। लोगों के पेट से उफन रही भूख प्यास की आग पर सियासत की हाड़ी जरूर लगती है लेकिन समस्या का कोई समाधान नहीं निकला । राहुल गांधी की बुंदेलखण्ड में पद यात्रा पर कोई अपत्ती नहीं लेकिन देश में सार्वधिक समय कांग्रेस ने राज किया है। उत्तर प्रदेश ने देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिये है काश कांग्रेस ने समझा होता की समय का निदान कैसे होगा बुंदेलखण्ड की समस्या कम वर्षा की है और ऐसा कई सदियों से होता रहा है । अगर इस बात पर कांग्रेस संवेदनशील होती तो समस्या का समाधान संसाधनों के बेहतर प्रबंधन से हो सकता था, लेकिन दुर्भाग्य है कि नही हुआ । बुंदेलखण्ड की विडम्बना ये है कि यहां हीरा ग्रेनाइट की खदाने है। जंगल तेंदू पत्ता आवला से पटे पड़े हैं लेकिन इसके वाबजूद ये क्षेत्र सरकारी उपेक्षा का शिकार तो है ही साथ ही अल्प वर्षा का शिकार लगातार हो रहा है।
आज बुंदेलखण्ड की हालत इतनी खराब है कि वे मृत्यु शयया पर पड़ा नजर आ रहा है ।किसानों को पहनने के लिए कपड़े और खाने को अनाज नहीं हैं। यहां तक कि‍ चारा नहीं होने की वजह से जानवर भी दम तोड़ रहे हैं। सूखे का मतलब सिर्फ पानी का संकट नहीं है। रोज़गार का भी संकट है। खेती नहीं हुई है। किसान का कर्ज़ा बढ़ गया है। आंकड़ों के मुताबिक बुंदेलखंड में 80.53 फीसदी किसान कर्जदार है। मौत की ट्रेन लगातार अपने रफ़्तार से बुन्देलखण्ड में दौड़ रही है । लाशों और जल संकट पर सियासत का माहौल गर्म है, यहां मौत की फसल अपनी रफ्तार से पक रही है । मगर उन गांव का हाल जस का तस है जहां संनाटे को चीरती किसान परिवारों की चींखें सिसकियों के साथ हमदर्दी जताने वालों की होड़ में बार-बार शर्मसार होती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, बुंदलेखंड में 2009 में 568, 2010 में 583, 2011 में 519, 2012 में 745, 2013 में 750 और 2014 में 58 किसानों ने आत्महत्या कर मौत को गले लगा लिया। 6 वर्षों में 3,223 किसानों ने आत्महत्या की। 2015 के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं।
कभी बुन्देलखण्ड के लोग कम पानी में जीवन जीते थे लेकिन समय के साथ साथ जल स्त्रोत नष्ट हो गये । सिंचाई के पानी की कमी,गिरते जलस्तर और सूखे की मार के कारण खेती का संकट बढ़ता गया राज्य सरकारों ने भी खेतों तक नहर द्वारा पानी पंहुचाने की उचित व्यवस्था नहीं की । ऐतिहासिक अतीत की गवाह रही इस क्षेत्र की धरती जर्जर जर्जर होती गयी। किसान हाशिये की तरफ जाते रहे और भुखमरी का शिकार हो गये। कर्ज के बोझ से दबे होने के कारण मौत को गले लगाने लगे ।
जल संरक्षण उपायों का अभाव और जल संरक्षण का परम्परागत तरीकों के प्रति उदासीनता ने इस संकट को इतना बढ़ा दिया हैकि अब समाधान के लिए ठोस उपाये करने होंगे। जल संकट की यह भयंकर समस्या केवल कुछ टैंक पानी या जल ट्रेन चलाने से समाप्त नही होगी बल्कि कोई बृहद एवम् स्थाई योजना बनाकर काम करना होगा । साथ ही किसान को आत्महत्या से बचाना है, तो उसकी जमीन, मवेशी और चारे को तो बचाना ही होगा। उसे सक्षम बनाना है, तो पहले उस तक बीज, खाद और तकनीक को वाजिब दाम मे पहुंचाना होगा। भंडारण की पर्यापत व्यवस्था करनी होगी। बाजार की समझ पैदा करनी होगी। संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन से ही तस्वीर बदलेगी अन्यथा बच्चों के रोटी मांगने पर मां चाटें मारती रहेंगी। ये भी याद रखना होगा कि जिस देश का बचपन भूखा हो उस देश की जवानी क्या होगी।

सत्यम सिंह बघेल

प्यासे बुन्देलखण्ड में पानी पर सियासत

पिछले कुछ वर्षों से लगातार सूखा एवं जल संकट से जूझ रहे बुन्देलखण्ड में मार्च के महिने में वहां के किसानों और मजदूरों के परिवारों द्वारा अन्न की कमी के कारण घास की रोटी खाने का मामला प्रकाश में आने के बाद प्रशासन हरकत में आया था और प्रदेश सरकार व केंद्र सरकार की टीमें हालत का जायजा लेने वहां पहुंची थी। उसके बाद ही केंद्र की ओर से राहत पैकेज का ऐलान हुआ था जिसे प्रदेश सरकार ने अपेक्षा के मुताबिक नाकाफी बताया था और कहा कि प्रदेश सरकार के इंतजाम काफी हैं और उन्हें केन्द्रीय मदद की जरूरत नहीं है। लेकिन पिछले हफ्ते तक मामला सुर्ख़ियों में बने रहने तथा रेल मंत्रालय द्वारा पानी की एक ट्रेन झांसी भेजने के बाद फिर शुरू हुआ चिर-परिचित राजनीतिक ड्रामा। वर्षों पहले प्रख्यात फिल्म निर्माता एमएस. सथ्यू की फिल्म ‘सूखा’ (1980) के अंत में डायलॉग था कि इस देश में सूखे पर भी राजनीति होती है। हालात इन 36 वर्षों में कुछ भी बदले नहीं हैं ।
केंद्र सरकार ने लातूर की तर्ज पर सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड की प्यास बुझाने के लिये जल ट्रेन भेजी लेकिन यूपी की अखिलेश सरकार ने ट्रेन का पानी लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि बुन्देलखण्ड में पर्याप्त पानी है और राहत कार्य चल रहें हैं । यह  केवल पानी के मुद्दे पर राज्य और केन्द्र सरकार के बीच बुंदेलखण्ड में राहत का श्रेय लेने की होड़ का नतीजा है। राज्य सरकार को भय है कि केंद्र व विपक्षी दल यह संदेश देने में कामयाब रहेंगे कि प्रदेश सरकार पानी मुहैया कराने में ठीक से काम नहीं कर रही है। हालांकि पानी की ट्रेन भेजने के पीछे रेल मंत्रालय की ऐसी कोई मंशा नहीं है। वैसे भी पहले से ही केन्द्र का गंगा सफाई अभियान अखिलेश सरकार की आंख की किरकिरी बना हुआ है। अब पानी की ट्रेन के मामले ने अखिलेश सरकार को और डरा दिया। डर यही है कि श्रेय केन्द्र की मोदी सरकार को न मिल जाए। केन्द्र के हर कार्य को राजनीति के चश्मे से देखने की सपा की फितरत ने सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड के लोगों तक पानी की ट्रेन पहुंचने ही नही दिया । सूखे से जूझ रहे बुंदेलखंड से लोगों का पलायन रोकने में सपा सरकार कोई ठोस उपाय धरातल पर नहीं ला पाई। लोगों के पास रोजगार नहीं है और खाद्यान्न संकट बना हुआ है। किसान लगातार आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। पानी के लिए देश बहुत हद तक मॉनसून पर निर्भर है, पिछले दो सालों से कमजोर मॉनसून ने हालात और बिगाड़ दिए। उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड का क्षेत्र जो लगातार चार वर्षो से सूखे की मार से जूझ रहा है, इन दिनों आखिर बुंदेलखंड उस हालत में पंहुच गया जिसके बारे में पांच महिने पहले ही चेताया गया था। पिछले तीन महिनों में दिल्ली, भोपाल और लखनऊ के चार सौ से ज्यादा बड़े पत्रकार बुंदेलखंड का दौरा कर चुके हैं। लेकिन बुंदेलखंड की व्यथा कथाएं लिखने के अलावा वे भी ज्यादा कुछ सुझा नहीं पाए। हर दिन किसानों की मौतों की गिनती करते रहने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पाया।
यह इलाका एक भरे पूरे प्रदेश के बराबर है। आबादी दो करोड़ है। इसे एक नजर में देखना और दिखाना दो-चार हफ्ते का काम नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि समझने की कोशिश बिल्कुल भी न हुई हो। हां यह अलग बात है कि देश और विश्व के स्तर पर बुंदेलखंड को समझने की जितनी भी कोशिशें हुईं वे जल प्रबंधन की प्राचीन पद्धतियों को जानने और जटिल भौगालिक परिस्थितियों को समझने की ज्यादा हुईं। सत्तर के दशक में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रुचि वाला बंगरा वाटरशेड अध्ययन हो या अस्सी के दशक में किया गया चंदेलकालीन जल विज्ञान का अध्ययन, किसी का भी फायदा सीधे-सीधे बुंदेलखंड को मिल नहीं पाया। कारण एक ही रहा कि इलाका इतना बड़ा है कि उसके लिए राजनीतिक ईमानदारी और अच्छी खासी रकम की जरूरत थी। इस बात को इसी स्तंभ में कई बार तथ्यों के आधार पर बताया जा चुका है।
उत्तर प्रदेश में सोनभद्र से लेकर महोबा तक जल संकट अब तक के सबसे भयावह रूप में खड़ा है। खेती किसानी तो पहले से चौपट हो चुकी थी अब गृहस्थियां तबाह हो रही है, जल संकट की वजह से रोजगार ठप्प है वहीँ अंतर्राज्यीय पलायन चरम पर पहुँच गया है। गौरतलब है कि अकेले सोनभद्र जनपद से 50 से 60 हजार आदियासियों के पलायन की खबर है। खबर चौंकाने वाली मगर सच है कि पानी के अभाव में पूरे राज्य में हजारों की संख्या में मवेशियों की मौत हुई है, सोनभद्र में पिछले एक सप्ताह के दौरान कई जानवरों ने जंगलों में पानी न मिलने पर पत्थर पर सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी है। यूपी में 55 जिलों में सूखे की मार है , लेकिन सरकारी तंत्र इस विपदा से निबटने में न सिर्फ नाकाम रहा है बल्कि उसका रवैया असंवेदनशील भी है। ऐसा नहीं है कि सरकारें प्रयास नहीं कर रही हैं, लेकिन आपको समझना यह है कि क्या यह प्रयास पर्याप्त है, कितना बुनियादी हल है, कितना नाम के लिए और कितना दिखावे के लिए।
आज बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात में सरकारें अपना मुंह छिपाने के लिए बुंदेलखंड में कुछ लोगों को रोटी और पानी बंटवाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं। वहां मौतों और थोक में पलायन को रोका नहीं जा सकता है। लेकिन हॉ ! अगले साल फिर ऐसे हालात से बचने के बारे में तो सोच ही सकते हैं। राज्य एवं केंद्र सरकारें तथा सभी जन प्रतिनिधि एक बार तसल्ली से बैठकर, गंभीरता से बैठकर, ईमानदारी से बैठकर जल संकट से बचने के ठोस एवं बृहद रूप से तथा स्थाई रूप से योजना बनाने के उपाय ढूंढे ।
उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि आपस में लड़ते रहने से मीडिया में तो बना रहा जा सकता है लेकिन वे काम नहीं हो सकते जो राजनीति के उद्देश्यों में शामिल हैं।
अगर अगले वर्ष जल संकट से बचना है तो अभी से लगना पड़ेगा। सिर्फ लगना ही नहीं पड़ेगा बल्कि युद्ध स्तर पर जुटना पड़ेगा।

सत्यम सिंह बघेल

Tuesday, May 3, 2016

क्या विधवा स्त्री समाज का अंग नही

कुछ साल पहले एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दाखिल की थी। इसमें विधवाओं की दयनीय हालत को सुधारने की बात कही गई थी। इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से विधवाओं को पर्याप्त घर उपलब्ध कराने के लिए कहा। साथ ही मंथली ग्रांट को इस साल 1 जनवरी से 1300 से 5100 रुपए तक बढ़ाने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार वृंदावन में एक हजार विधवाओं के रहने के लिए घर बनवाएगी। इसके लिए 57 करोड़ का बजट रखा गया है। ये घर दिसंबर 2017 तक तैयार हो जाएंगे। इनके मेन्टेनेंस के लिए हर साल 4 करोड़ रुपए दिए जाएंगे। तथा वृंदावन की विधवाओं को राहत देने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के दूसरे शहरों और पश्चिम बंगाल, ओड़िसा और उत्तराखंड की विधवाओं को भी रिलीफ देने की ओर ध्यान दिया है । संतुलित समाज की कल्पना को साकार करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत ही सराहनीय और सम्मानजनक है। क्योंकि हमारे देश के अंदर समाज में विधवाओं की बहुत ही दयनीय स्थिति है । हमारे यहा विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। देश में कुछ ऐसे भी इलाके हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल सीमा से लगे कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती हैं। विधवाओं पर अनेक तरह की सामाजिक बंदिशे हमारे समाज में प्रचलित हैं । उनके लिए श्रृंगार तथा रंग-बिरंगे वस्र धारण करना वर्जित माना गया है। प्रायः वे काली ओढ़नी तथा सफेद छींट का घाघरा पहनते हुए सन्यास- व्रत के नियमों का पालन करती हैं। भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि विधवा के पति अपनी मृत्यु से पहले अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर देते हैं, लेकिन उन्हें यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ता है। उन्हें इसके लिए अपने बेटों से एनओसी लेना पड़ता है।
हम सब एक सामाजिक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें सदैव एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए जिससे समाधान की दिशा में सही कदम उठाए जा सकें। देश भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्ध, हिंसा  व बीमारी के चलते अपने पतियों को खो देती हैं और वो विधवा कहलाने लगती हैं | विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता आ रहा है। एक अनुमान के अनुसार पति की मौत के बाद अभिशाप समझकर परिवार द्वारा निकाली गईं, ऐसी महिलाओं की संख्या करीब चार करोड़ के आस-पास है | तथा वर्ष 2014 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 5 करोड़ विधवाएं हैं, परंपरा, रीति-रिवाज के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
वृंदावन और बनारस में रह रही हजारों विधवायें पिछले कई सालों से समाज की मुख्यधारा से दूर एक गुमनाम जिंदगी बिता रही है। इनमें अधिकतर विधवायें पश्चिम बंगाल एवं उत्तर भारत की हैं जो पति की मौत के बाद परिवार से निकाल दी गईं और देश के कई हिस्सों में भटकने के बाद वृंदावन और बनारस के विभिन्न आश्रमों में पहुंची या खुद परिवार द्वारा यहां जबरन पहुंचा दी गई। विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता। गैर समाज सेवी संस्थाओं की मदद से इनमें से कुछ को रहने और खाने का आसरा मिल जाता है ।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पुस्तक "हिन्दू विधवा विवाह" के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास में ब्राह्मण,  उच्च राजपूत, महाजन, ढोली, चूड़ीगर तथा सांसी जातियों में विधवा विवाह वर्जित था। अन्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलित थे। वर्ष 1853 में हुए एक अनुमान के अनुसार कोलकाता में लगभग 12,718 वेश्याएं रहती थी। ईश्वर चंद्र विद्यासागर उनकी इस हालत को परिमार्जित करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे। अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को हिंदूसमाज में स्थान दिलवाने का कार्य प्रारंभ किया। उनके प्रयासों द्वारा 1856 में अंग्रेज़ी सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर इस अमानवीय मनुष्य प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया था। विधवा विवाह से तात्पर्य ऐसी महिला से विवाह है जिसके विवाह उपरांत उसके पति का देहांत हो गया हो और वह वैध्वय जीवन व्यतीत कर रही हो। कुलीन वर्गीय ब्राह्मणों में यह व्यवस्था थी कि पत्नी के निधन हो जाने पर वह किसी भी आयु में दूसरा विवाह कर सकते हैं। यह आयु वृद्धावस्था भी हो सकती थी। पत्नी के रूप वह किशोरवय लड़की का चयन करते थे और जब उनकी मृत्यु हो जाती थी तो उस विधवा को समाज से अलग कर उसके साथ पाश्विक व्यवहार किया जाता था। जो महिलाएं इस तरह के व्यवहार को सहन नहीं कर पाती थीं, वह खुद को समर्थन देने के लिए वेश्यावृत्ति की ओर क़दम बढ़ा लेती थीं। विधवा विवाह को बेहद घृणित दृष्टि से देखा जाता था। इसी कारण बंगाल में महिलाओं विशेषकर बाल विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी।
लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में ऐसी विधवाओं को समाज की मुख्यधारा में वापिस लाए जाने की जरूरत है। जो अपने तन पर सफेद साड़ी आते ही समाज के रिश्ते-नातों और दुनिया के रंगों से अलग कर दी जाती हैं । वे अब बदलते समय के साथ समाज की मुख्यधारा में लौटना चाहती हैं और इनमें से कई विधवाएं एक बार फिर विवाह बंधन में बंधने एवं नई जिन्दगी जीने का सपना भी देखती हैं। अत: महिलाओं को विधवा होने के बाद पुरुषों की ही तरह फिर से विवाह करने का अधिकार होना चाहिए। विधवा महिलाओं को समाज में बिल्कुल अनदेखा कर दिया जाता है, जबकि उन्हें फिर से रिश्ते जोड़ने का हक मिलना चाहिए, समाज के लोग इसमे उनका साथ दें। महिला कम उम्र में विधवा हो जाती है तो उसे पुन: घर बसाने का मौका दिया जाना चाहिए। इसके लिए समाज को एवं समाज के हर वर्ग को जागरूक होना होगा और रीति-रिवाज और परम्पराओं को परे रखकर, विधवाओं को उनके अधिकार दिलाने की अवाश्यकता है, जिस समाज में सभी को समान रूप से जीने का अधिकार है उस समाज में विधवाओं का यह अधिकार क्यों छीन लिया जाता है, उनका शोषण क्यों किया जाता है ? क्यों उन्हें अनदेखा किया जाता है ? क्यों उन्हें अछूत की दृष्टि से देखा जाता है ? क्यों उनके साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है ? क्या वे समाज का अंग नही है ? क्यों उनके प्रति दुर्भावना रखी जाती है ? उनके साथ ऐसा नही किया जाना चाहिए उन्हें समाज में समानता का दर्जा दिया जाना चाहिए । अगर वे फिर से विवाह करना चाहती हैं तो विरोध करने की बजाये उनका साथ देना होगा, वे अगर नई जिन्दगी की शुरुआत करने का सपना देखती हैं, तो उनके अंदर सपने सकार करने का हौसला भरना चाहिए । उनकी शोषित, दुखभरी, अनदेखी दुनिया को समाप्त कर फिर से उनके जीवन को खुशियों से भर देना चाहिए । क्योंकि रीति-रिवाज इंसान के लिए हैं न कि इंसान रीति-रिवाज के लिए, अगर किसी अच्छे काम के लिए रीति-रिवाज को बदलना पड़े तो हमे बदल देना चाहिए ।

लेखक - सत्यम सिंह बघेल

किसान हितैषी बयानों से घिरी किसानों की दर्द भरी जिंदगी

किसान के लिए उसके खेत खलिहान और उसकी फसल ही उसका भविष्य, उसकी तरक्की, उसके अरमान, उम्मीदें, सबकुछ होती हैं । लेकिन जब सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि या फिर किसी कारण वश किसान की फसल नष्ट हो जाये तो उसका सबकुछ बर्बाद हो जाता है उसकी उम्मीदें बिखर जाती हैं, सपने चूर चूर हो जाते हैं . वर्तमान समय में भी सूखा पड़ने के कारण देश के अन्नदाता के यही हाल बने हुए हैं ।
देश के अधिकांश भागों में बारिश कम होने और सूखा पड़ने के कारण पिछले वर्ष खरीफ की फसल पूरी तरह नष्ट हुई थीं । इसके बाद ओलावृष्टि के कारण कुछ क्षेत्रों में रबी की फसल पूरी तरह चौपट हो चुकी है । इससे अन्नदाता कहे जाने वाले भारतीय किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है, वह अपनी बेहताशा आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है ।
किसानों का जीवन अस्त-व्यस्त और बेहाल है, जीना मुसकिल हो गया है । किसान खून के आंसू पीने पर मजबूर हैं । किसान आत्महत्या करने पर विवश हैं और हमारे देश की राजनैतिक दल एवं सरकार उसकी विवशता पर उसे सहयोग देने, आर्थिक मदद करने , उसका हौसला बढ़ाने की बजाये उसकी इस दशा पर सिर्फ अपनी राजनैतिक सियासत की गोटियाँ खेल रहे हैं । अब मप्र के किसानों के हाल ही देख लीजिये । वहां पिछले रबी के सीजन में भारी ओलावृष्टि से कुछ जगह फ़सलें पूरी तरह चौपट हो चुकी हैं । ओलावृष्टि से चौपट हुई फसलों का सर्वे भी हुआ। नुकसान की रिपोट भी तैयार हुई । उस समय ओलावृष्टि से पीड़ित किसानों की बदहाल दशा पर खूब राजनीति भी हुई । सभी दल के नेताओं ने खेतों में जाकर नष्ट हुई फसल और पीड़ित किसानों के साथ खूब फोटो निकलवाया । बढ़-चढ़कर बयान बाजी हुई । खूब घोषणाएं हुई, हर संभव मदद की दिलाशाएं दी गई । सरकार द्वारा बिजली बिल माफ़ करने, इस वर्ष ऋण वसूली स्थगित करने, पीड़ित किसानों को एक रुपया किलो चावल, नमक, गेहूं देने की घोषणा की गई, जल्द से जल्द मुआवजा देने का वादा किया गया लेकिन अभी तक किसानों को कोई मदद नही मिल पाई । समय बीता समय के साथ सारी घोषणा, अस्वासन, वादे सब के सब ठंडे बस्ते में चला गया, अब किसानों के हाल जानने वाला कोई नही है
ऐसा नही है कि किसानो की यह स्थिति केवल वर्तमान समय में है । किसानों की यह दयनीय दशा हमेशा से बनी हुई है । चाहे वह कांग्रेस की सरकार को या भाजपा की सरकार सभी के कार्यकाल में किसानों का शोषण हुआ है, उन्हें अनदेखा किया गया है, उनकी दयनीय दशा पर हमेशा से राजनीति हुई है ।
जब से देश आजाद हुआ तब से अपनी समस्याओं के चलते किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। आर्थिक तंगी से जूझ रहे किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं । राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार भारत भर में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्याएं की थी । 2009 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में 1172 की वृद्धि हुई थी, अत: 2009 के दौरान 17368 किसानों द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक रपट दर्ज हुई. राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के अनुसार 1994 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की हैं । सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रूक नहीं रहा है, देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं । वहीं केवल यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र में इस वर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 500 पहुँच गई है, इस क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में 5000 लोग आत्महत्या कर चुकें । बुंदेलखंड के लोग घास की रोटी और घास की ही चटनी खाने को मजबूर हैं ।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र की स्थिति सभी को मालूम है, जहाँ लोगों के पास पीने तक को पानी नही है उस क्षेत्र के किसानों की क्या दशा होगी । यह सब सोचकर मन बहुत ज्यादा विचलित हो जाता है । लेकिन किसानों की इस दुखदायी घड़ी में राजनैतिक दल उनका साथ देने और उनका सहयोग करने की बजाए, उनकी इस लाचारी एवं बेवसी पर राजनीति कर रहे हैं ।
हाल ही में कुछ माह पूर्व राहुल गाँधी ने किसानों से मिलने के लिए पद यात्रा किये थे। बड़ी आस लगाकर किसान उनसे मिलने पहुंचे कि हमें हमारी समस्या से निपटने के लिए, सूखे की मार से उभरने के लिए, बारिश की चपेट से बचने के लिए सुझाव दिए जायेंगे हमारी कुछ मदद की जाएगी । लेकिन यात्रा में ऐसा कुछ नहीं हुआ, वहां हुआ तो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और अपनी वोट बैंक की राजनीति बस, जो 65 वर्षों से हो रहा है । किसानो की कोई मदद नही, कोई सुझाव नही, किसानो की स्थिति आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है, चाहे विदर्भ या बुन्देलखण्ड हो या फिर अन्य क्षेत्र । ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस को अचानक से किसानों की याद आने लगी, क्या इसलिए कि कांग्रेस का अस्तित्व अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है ? क्या कारण है कि कांग्रेस किसानों की हितेषी बन गई, उसे देश में हो रही नित्य प्रति किसानों की आत्महत्याएं दिखाई देने लगी, उनकी छिनती हुई जमीन याद आने लगी, उन पर अपार सहानुभूति बरसने लगी ।
वैसे ये कोई नयी बात नहीं है ये तो हमेशा से ही हो रहा है, देश के अन्नदाता कहे जाने वाले किसानों के साथ छल कपट कर उनकी भावनाओं से खिलवाड़ हमेशा से ही होता चला आ रहा है, राजनैतिक पार्टियां सिर्फ अपनी वोट बैंक की राजनीति करती आयी हैं । हम लोग हमेशा से यही कहते-सुनते आ रहे हैं, भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह देश किसानों का देश है, इस देश के किसान भारत की जान हैं, शान हैं, किसान हमारा अन्नदाता है और ना जाने कितनी तरह की बातें करते हैं और सुनते हैं . इन बातों को अख़बारों, किताबों में पढ़ते-पढ़ते और भाषणों, समाचार चेनलों में सुनते सुनते वर्षों बीत गये, कई पीढियां गुजर गई, फिर भी आज इस देश में जो स्थिति किसानों की है वह किसी से छुपी नहीं है, किसान आज भी गरीब, लाचार, दुखी-पीड़ित और हर तरफ से मजबूर, तंग हालात में जीवन-यापन कर रहा है और राजनैतिक दल उसकी इस हालत पर राजनीति करने में लगे हुए हैं .
हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकारें आज इतने संवेदनशून्य हो चुकी हैं कि उन्हें किसानों की मौत पर कोई फर्क नहीं पड़ता । यही नहीं सरकारें किसानों की फसल खराब होने पर उन्हें मुआवजा राशि के रूप में 6₹, से लेकर 100₹ तक देती हैं । आख़िर ये जले पर नमक छिड़कना नहीं तो और क्या है ? किसान परिश्रम, बलिदान, त्याग और सेवा के आदर्श द्वारा देश का उपकार करता है, प्रकृति का वह पुजारी तथा धरती मां का उपासक है । धन से गरीब होने पर भी वह मन का अमीर और उदार होता है । किसान अन्नदाता है, वह समाज का सच्चा हितैषी है। उसके सुख़ में ही देश का सुख़ है और उसकी समृद्धि में ही देश की समृद्धि है । लेकिन फिर भी देश राजनैतिक दल किसानों के साथ छल-कपट की राजनीति कर रहें है और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, बार-बार सिर्फ कोरे वादे करके अपना प्रचार प्रसार करते हैं बस और कुछ नहीं । आज हम देख रहे हैं किसानों की दशा क्या है यह किसी से छुपी नहीं है, किसान आज भी गरीब, लाचार, दुखी-पीड़ित और हर तरफ से मजबूर, तंग हालात में जीवन-यापन कर रहा है
सरकारों द्वारा किसानों के लिए उचित कार्य जो करने चाहिए थे नहीं किया गया । तभी तो आज भी देश में कृषि शिक्षा के विश्वविध्यालय और कॉलेज नाम-मात्र के हैं, उनमें भी गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है। शिक्षा का ही दूसरा पहलू जिसे प्रबंधन शिक्षा की श्रेणी में रखा जा सकता है, नाम-मात्र भी नहीं है । राष्ट्रीय अथवा प्रदेश स्तर पर कृषि शिक्षा के जो विश्वविध्यालय हैं, उनमें शोध संस्थानों के अभाव में उच्चस्तरीय शोध समाप्त प्राय से हैं । कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ । जिन फसलों को किसान बोना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक जलवायु, पानी, भूमि आदि कैसा होना चाहिए । इसका परीक्षण कर संबंधित किसानों को शिक्षित किये जाने की भी व्यवस्था कराई जानी चाहिए ताकि वह सुझावानुसार कार्य करने के लिए सहमत हो। इस हेतु अच्छी प्रजाति के बीजों की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए, बीज की बुवाई के समय कृषि क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ अपनी देखरेख में बुवाई कराएं तथा उन पर होने वाली बीमारियों, आवश्यक उर्वरकों, सिंचाई, निकाई, निराई, गुड़ाई आदि का कार्य आवश्यकतानुसार समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों के निर्देशन में कराया जाना चाहिए, इससे उत्पादन बढ़ेगा एवं किसान समृद्ध होगा । किसान समृद्ध होगा तभी तो देश समृद्ध होगा ।

लेखक – सत्यम सिंह बघेल

Sunday, May 1, 2016

बाल मजदूरी : भारत का भविष्य अंधकार के आगोश में

इंसान के लिए बचपन की यादें उसकी जिन्दगी में सबसे बेहतरीन और यादगार पल के रूप में होती हैं, न किसी बात की फ़िक्र, न ही कोई काम और न ही कोई जिम्मेदारी। बस हर पल हर घड़ी खेलते कूदते रहना, पढ़ना-लिखना, आराम करना और अपनी मस्तियों में खोए रहना और ख़ुशी-ख़ुशी जीना । लेकिन समाज में हर किसी का बचपन ऐसा ही हसीन हो यह जरूरी नहीं, आज भी समाज में एक बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है, जो इन सब बातों से अनभिज्ञ है, जो अपनी दैनिक जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा है | समाज का यह वर्ग बचपन से ही अपनी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है, मुसीबतों से लड़ रहा है | अपनी गरीबी, निर्धनता, लाचारी के कारण मजदूरी करने के लिए बेबस है | हमारे समाज में आज बहुत अधिक संख्या में 14 वर्ष से भी कम उम्र के बच्चे मजदूरी करने के लिए विवश हैं, जिसे हम बाल मजदूरी कहते हैं |  
दुनिया के कई देशों में आज भी बच्चों को बचपन नसीब नहीं है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 12 जून बाल मजदूरी के विरोध का दिन है, अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन आईएलओ 2002 से हर साल इसे मना रहा है, लेकिन फिर भी दुनिया भर में बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी कर रहे हैं, इनका आसानी से शोषण हो सकता है | उनसे काम दबा छिपा के करवाया जाता है, वे परिवार से दूर अकेले इस शोषण का शिकार होते हैं, घरों में काम करने वाले बच्चों के साथ बुरा व्यवहार बहुत आम बात है | वैश्विक स्तर पर देखें तो सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी बड़ी समस्या बनी हुई है | दुनिया में ऐसे 71 देश हैं जहां बच्चों से मजदूरी करवाई जाती है, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नई रिपोर्ट में 140 देशों का आंकलन किया गया है | 'फाइंडिंग्स ऑन द वर्स्ट फॉर्म्स ऑफ चाइल्ड लेबर' नाम की इस रिपोर्ट में ऐसी 130 चीजों की सूची बनाई गई है जिन्हें बनाने के लिए बच्चों से काम करवाया जाता है | इस रिपोर्ट में बताया गया है कि ईंटें तैयार करने से लेकर मोबाइल फोन के पुर्जे बनाने तक के कई काम बच्चों से लिए जाते है | इसकी मुख्य वजह यही है कि मालिक सस्ता मजदूर चाहता है, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने बाल मजदूरी पर 130 ऐसी चीजों की सूची बनाई है, जिनके निर्माण में बच्चों से काम करवाया जाता है, इस सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पाद भारत में बनाए जाते हैं, इनमें बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईट, जूते, कांच की चूड़ियां, ताले, इत्र, कालीन कढ़ाई, रेशम के कपड़े और  फुटबॉल बनाने जैसे काम शामिल हैं | आईएलओ का कहना है कि दुनिया में एक तिहाई देशों ने अब तक ऐसी सूची बनाई ही नहीं है जिस से वे तय कर सकें कि कौन से काम बच्चों के लिए हानिकारक हो सकते हैं | कई देशों में काम करने की कोई न्यूनतम उम्र तय नहीं की गई है और उन देशों में जहां बाल श्रम के खिलाफ कानून हैं वहां इनका ठीक तरह से पालन नहीं किया जाता, विकासशील देशों में बाल श्रमिकों की संख्या सब से ज्यादा है |
बाल मजदूरी की यह विकराल समस्या भारत में भी विशाल रूप धारण किये हुए है, यह देश में बहुत बड़े पैमाने में फैली हुई है | हमारे देश में तमाम सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों के बावजूद देश में बाल मजदूरी बड़ी चुनौती बनी हुई है, नगरों-महानगरों से लेकर गांव कस्बों तक घरों से लेकर छोटे-बड़े ढाबों, दुकानों और सार्वजनिक संस्थानों में बड़ी संख्या में बच्चों को काम करते देखना आम बात है | बीड़ी उद्योग जैसी जगह में बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं जो लगातार तंबाकू के संपर्क में रहने से ज्यादातर बच्चों को इसकी लत पड़ जाती है और इससे फेफड़े संबंधी रोगों का खतरा बना रहता है | ऐसे ही बड़े पैमाने पर अवैध रूप से चल रहे पटाखा और माचिस कारखानों में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे होते हैं जिन्हें दुर्घटना के साथ-साथ सांस की बीमारी का भी खतरा बना रहता है, इसी तरह से चूड़ी निर्माण में भी बाल मजदूरों का ही पसीना होता है जहां 1000-1800 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाली भट्टियों के सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते हैं, देश के कालीन उद्योग में भी लाखों बच्चे काम करते हैं, आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कालीन उद्योग में जितने मजदूर काम करते हैं, उनमें से तकरीबन 40 प्रतिशत बाल श्रमिक होते हैं | वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी, भारी संख्या में बच्चे खप रहे हैं, पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में लाखों की संख्या में बाल मजदूर काम करते हैं, इनमें से अधिसंख्या का तो कहीं कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता, कुछ बारीक काम जैसे रेशम के कपड़े बच्चों के नन्हें नाजुक हाथों से बनवाए जाते हैं | वहीँ हमे कचरे के ढेर से  पन्नी बीनना हो या बूट पालिस की दुकान, ढाबों में बर्तन धोने का काम हो या फिर बसों-ट्रेनों में अश्लील किताबें बेचने के लिए दिन भर बस स्टैण्ड में बोझा उठाने के काम में जुटे भूखे नंगे, अधनंगे बच्चे प्रदेश के प्राय: सभी शहरों और कस्बों में मिल जाएंगे, जिन्हें कानून और समाज ने बाल श्रमिक का नाम दिया है। ये लोग यह काम मजबूरी में करते हैं, भला पेट की आग तो उन्हें बुझाना ही पड़ेगा। भूखे पेट भला बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे और कैसे पढ़ाई करेंगे? सरकार गरीब बच्चों को स्कूलों तक लाने और साक्षरता प्रतिशत बढ़ाने के लिए विशेष अभियान चला रही है। इसके तहत गरीब बच्चों को चिन्हित कर उनका स्कूलों में एडमिशन कराया जा रहा है, लेकिन इस ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता कि ये बच्चे अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए ही इन कामों में जुटे हुए हैं। कोई पन्नी बीनकर अपने भोजन की व्यवस्था करता है, तो कोई ढाबे पर बर्तन मांझकर, तो कोई घरों में झाडू-पौछा करके।
सरकारें लाख बाल श्रम से जुड़े चाहे कितने भी कड़े कानून बना दिए जाएं, लेकिन बच्चों को उनके पेट की आग मजदूरी करने को विवश कर ही देती है। दौर चाहे सामंतों का रहा हो या फिर आज के आजाद देश का, बाल श्रमिक आज भी अमीरों के घरों से लेकर कचरे के ढेरों पर पन्नी बीनते, ढाबों पर काम करते नजर आ जाते हैं। मानवधिकार ही नहीं तमाम सरकारी-गैरसरकारी संगठन जो भी इन्हें अधिकार दिलाने की बात मंचों और समारोहों में करते हैं, उन्हे छोड़ भी दे तो सबसे अहम सवाल पेट के लिये दो वक्त की रोटी का है, जिसकी तलाश में बच्चें बोरी उठाये कचरें में रोजी और रोटी दोनों ही तलाशतें हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बूट पलिस की बूट चमकाने में अपने बचपने की धार खो देते हैं । ढावे में साफ सफाई करने से लेकर सब्जी काटने और रोटी परोसने में यही बच्चे लगे रहते हैं । अपना बचपना बर्बाद करने के बाद उन्हें कुल दो जून का खाना भी नहीं मिल पाता है ।
यह स्थिति समाज में बालश्रम की व्यापक स्वीकार्यता को दर्शाती है और यह भी कि समाज में कानून का कोई खौफ नहीं है, सरकारी मशीनरी इसे नजरअंदाज करती नजर आती है,  2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की आबादी 25.96 करोड़ है |  इनमें से करीब एक करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं, इनमें 5 से 9 साल की उम्र के करीब 25 लाख और 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75 लाख बच्चे शामिल हैं | राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तर प्रदेश (21.76 लाख) में हैं, जबकि दूसरे नम्बर पर बिहार है जहां 10.88 लाख बाल मजदूर हैं, राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल मजदूर हैं |  यह सरकारी आंकड़े हैं और यह स्थिति तब है जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे बाल श्रम की परिभाषा के दायरे में शामिल हैं |
1992 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था देखते हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का काम रुक-रुककर करेंगे क्योंकि इसे एकदम से नहीं रोका जा सकता है, लेकिन भारत ने आज तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता है, 22 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाए हैं | साथ ही इसके विपरीत केंद्रीय कैबिनेट ने बाल श्रम पर रोक लगाने वाले कानून को कुछ नरम बनाने की मंजूरी दे दी है | इसमें सबसे विवादास्पद संशोधन पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखने का है |
बिडम्बना देखिये कि पिछले साल ही बाल मजदूरी के खिलाफ उल्लेखनीय काम करने के लिए ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के प्रणोता कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिनका कहना है कि बच्चों से उनके सपने छीन लेने से ज्यादा गम्भीर अपराध और क्या हो सकता है, जब बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा कर दिया जाता है, उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता है या उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने की इजाजत न देकर कहीं मज़दूरी के लिए मजबूर किया जाता है या सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है, ये सब तो इंसानियत के माथे पर धब्बा है | लेकिन लगता है कैलाश सत्यार्थी की यह आवाज अभी हमारे नीति निर्माताओं के कानों तक नहीं पहुची है, तभी तो कहा जा रहा है कि बच्चों की सेहत और शिक्षा बाधित किये बिना वे घरेलू श्रम में हाथ बंटा सकते हैं, बालश्रम के विरुद्ध लागू कानून में यह संसोधन बाल श्रम और शोषण को सीमित करने के बजाय उसे बढ़ावा ही देगा | अगर चाइल्ड लेबर एक्ट को भी अच्छी तरह से लागू कर दे तो भी बहुत कुछ हो जाएगा लेकिन वो भी नहीं होता, मजदूरी कराने वालों के हिसाब से काम होता है, बच्चों से मजदूरी करवाने की जो सजा है वो बिलकुल सख्त नहीं है, या तो तीन महीने की सजा होगी या फिर 20 हजार का जुर्माना, दोनों में से एक ही सजा मिलती है तो अधिकतर लोग जुर्माना दे कर छूट जाते हैं | फिर ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई भी नहीं होती, बच्चे पुनर्वास केंद्रों में फंसे रहते हैं, वहां की हालत कैसी है ये सभी जानते हैं | भारत में बाल मजदूरों की इतनी बड़ी संख्या होने का सबसे बड़ा कारण गरीबी-लाचारी है अगर गरीबी हट जाये तो बाल मजदूरी का अंत संभव है | यदि बाल मजदूरी का अंत किया जाता है तो यह बड़ी उपलब्धि होगी लेकिन इस दिशा में पहला कदम तो उठाया ही जाना चाहिए, मतलब गरीबी दूर की जानी चाहिए । देश में व्याप्त बाल मजदूरी को सामूहिक रूप से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है, क्योंकि यह संतुलित समाज के लिए कलंक है इसे समाप्त करना ही होगा | यदि हमें बेहतर भारत का निर्माण करना है और बच्चों के भविष्य को सुधारना है तो फिर इंतजार मत कीजिए, इस महत्वपूर्ण कार्य को तत्काल शुरू कर दीजिए। बाल मजदूरी की समस्या विकराल है लेकिन कुछ अच्छी कोशिशें भी नजर आ रही हैं, कर्मचारी संघों और नियोक्ता संगठनों के बाल मजदूरी के खिलाफ कदम उठाने के कुछ उदाहरण सामने आ रहे हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में, संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर लिखा है, "तमिलनाडु और मध्यप्रदेश के कर्मचारी संघों में ग्रामीण सदस्य कोशिश कर रहे हैं कि उनका गांव बाल श्रमिकहीन गांव बने, कई लोग बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए एक साथ काम कर रहे हैं", इसी मुहिम में हमें सभी को जुड़कर एवं आन्दोलन का रूप देकर बाल मजदूरी को जड़ से समाप्त करना होगा ।

सत्यम सिंह बघेल

दहेज प्रथा से परिवारों में बढ़ती हिंसा

मीडिया में एक खबर चल रही है कि बसपा के राज्यसभा सांसद की पुत्रवधु ने संदिग्ध परिस्थितियों में लाईसेंसी पिस्तौल से सिर पर गोली मारकर आत्महत्या कर ली। सांसद के बड़े बेटे सागर कश्यप की पत्नी हिमानी ने बाथरूम में जाकर लाईसेंसी पिस्तौल से खुद को गोली मार ली। सागर खुद एमएलसी हैं ।
सांसद की पुत्रवधु हिमानी बसपा सरकार में मंत्री रह चुके बदायूं के पूर्व विधायक हीरा लाल कश्यप की बेटी थी। सांसद परिवार का दावा कर रहा था कि उनकी बहू ने खुद को बाथरूम में लॉक करके गोली मारी थी। लेकिन वहीं हिमानी के पिता का आरोप है कि दहेज प्रथा के चलते उसकी हत्या की गई है, उनका आरोप है कि ससुराल वाले आये दिन दहेज को लेकर उनकी बेटी को प्रताड़ित करते थे । सांसद परिवार आरोप को नकार रहा है, किन्तु फिलहाल राज्यसभा सांसद और उनकी पत्नी को पुत्रवधु की रहस्यमय मौत के मामले में दहेज निरोधक कानून का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया गया । आखिर सच्चाई क्या है ? इस मामले में घटना की पूरी जांच होने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है, अभी किसी निष्कर्ष तक नही पहुंच सकते ।
अगर हिमानी की मौत दहेज की प्रताड़ना से हुई है, तो यब एक गंभीर विषय है और यह केवल उस परिवार का नही बल्कि सम्पूर्ण समाज का विषय है । एक धनवान व सभी तरह के संसाधनों से परिपूर्ण परिवार । अगर इस तरह दहेज के लिए अपनी बहु को प्रताड़ित करे  और इतना प्रताड़ित करे कि अंत में उसे मौत को गले लगाना पड़े तो यकीनन समाज के लिए यह बहुत ही गंभीर विषय है । यह घटना हमे सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर समाज किस ओर जा रहा है जो सबकुछ रहते हुए भी लालचवश कुछ रुपयों के लिए । उस देवीय स्वरूपा नारी पर अत्याचार करने लगते हैं जिसकी नवरात्रि में नव दिन उपासना करते हैं, उसी नारी को प्रताड़ित करते है, उस पर हिंसा करते हैं, जिसे हम देवी मानकर पूजते हैं और सारा समाज मूकदर्शक बनकर इस कृत्य को देख रहा है । आखिर क्यों समाज इस तरह के दोयम दर्जे का व्यवहार करता है ।
समाज में दहेज़ प्रथा अमावस के गहरे अंधियारें की तरह फैली हुई है और यह कुप्रथा दिन पर दिन अपनी जड़ें मजबूत करती जा रही है | इस युग में स्त्री और पुरुष कंधे से कन्धा मिलाकर साथ चल रहे हैं, हर एक क्षेत्र में परस्पर अपना योगदान दे रहे है । फिर भी इसी समाज में देहज प्रथा के नाम पर औरतों के साथ हुए उत्पीड़न के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं । फिर प्रश्न ये उठते हैं कि "हमारे जीवन में धन संपत्ति का कितना महत्व है ? क्यों अकारण ही हम सभी किसी न किसी पर हर बात का दोष मड़ते रहते है ? क्या हम इतने सक्षम नहीं है कि अपनी मेहनत से कुछ प्राप्त कर सके ? क्या अपने जीवन को जीने के लिए दूसरे के धन पर निर्भर होना उचित है ? क्या अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किसी की भी जान लेना उचित है ? अक्सर यह सवाल हम सब के मन को विचलित सा कर देते हैं । अगर स्त्री और पुरुष एक समान है, तो देहज प्रथा का होना कितना अनिवार्य है ? जब दोनों ही एक बराबर शिक्षित और सक्षम हैं, तो इतना भेदभाव रखना क्या उचित है ? वर्तमान दौर में स्त्री क्या कुछ नहीं कर रही है हर जगह अपने नाम का परचम लहरा रही है उदाहरण के तौर पर “चाहे वो पर्वत की सबसे ऊँची चोटी पर पहुंचना हो और या फ़ौज़ में जाना हो हर जगह अपने माता-पिता का नाम रौशन कर रही है | फिर भी आये दिन दहेज प्रथा के चलते औरते आत्महत्या कर बैठती हैं या फिर उन्हें ज़िंदा जलाकर मार दिया जाता है । पुलिस थाने में अक्सर जलाकर मार देने के मामले दर्ज होते हैं | रपट लिखायी तो जाती है मगर महिला पर इतना दबाव बना दिया जाता है कि अंत में उसको अपनी शिकायत वापस ही लेनी पड़ती है । कभी महिला को अपने माता पिता से अत्यधिक धन राशि न लाने पर ताने दिए जाते हैं, कभी उसको प्रताड़ित किया जाता है या तो फिर उसे वापस ही भेज दिया जाता है | अकारण ही उसको इतना विवश कर दिया जाता है कि वो खुद ही अपना जीवन समाप्त करने को मजबूर हो जाती है और ऐसे हालात के चलते हुए खुद को नुक्सान पंहुचा लेती है |
अभिप्राय यह है कि समाज में जो भी परम्पराये बनायीं गयी हैं वो हमारे सहयोग के लिए हैं न कि किसी को भी शोषित करने के लिए । महिला का भी बराबर का अधिकार है वो इतनी सक्षम है कि स्वयं को खुद ही उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर सकती है । इसलिए उसे असहाय या लाचार न समझें, उसका सम्मान करें, उसे नीचा न दिखायें और अपनी इच्छाओ में इतने अंधे न बने कि आप इंसान कहलाने लायक न रह जायें । क्योकि वो भी किसी की बेटी है किसी की पत्नी, बहू और माँ होने से पूर्व, ये कहना अनुचित नहीं होगा कि समाज कभी ऐसी बातों को स्वीकृति नहीं देता है, तो फिर ऐसी स्थिति में एकजुट होकर कोई भी अपना योगदान क्यों नही देता है । हर व्यक्ति को सदैव ये याद रखना चाहिए कि धन सिर्फ एक जरुरत है जिंदगी नहीं और अपनी महत्वकांशाओ को इतना न बढ़ाये जो किसी भी व्यक्ति की जान ले ले । अतः समाज को एवं समाज के हर व्यक्ति को देहज प्रथा पर रोक लगाने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए, एकजुट होकर पीड़ित महिलों की सदैव सहायता करें । एकता में बहुत शक्ति है, एकता ऊँचे से ऊँचे पर्वत को हिला सकती है, समुद्र को चीर सकती है | ऐसे शिक्षित होने का क्या लाभ है जहां कुप्रथाओ के चलते महिलायें सिर्फ शोषित होती रहें और हम सब तमाशबीन बने रहें । एक चीटी अकेले अपना खाना लेकर आने की कोशिश करती है और नहीं ला पाती, तो उसकी सहयोगी चीटियाँ उसके साथ चल पड़ती हैं, उसी तरह अगर एक इंसान अपनी आवाज़ को बुलंद करेगा उसी पहर एकजुटता प्रारम्भ होगी, और वह आवाज एक बुलन्द आवाज बन जाएगी | सदैव याद रखे कि देहज प्रथा सिर्फ एक प्रथा है उसके चलते किसी भी महिला को मानसिक और शारीरिक यातना देना उचित नहीं है, इसलिए इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाना बहुत जरुरी है । इसके लिए हम सभी दोषी हैं, हम सभी को इस समाज से दहेज़ प्रथा को जड़ से उखाड़ फेकना होगा इसमे सरकार दोषी नहीं है, सरकार ने तो कानून बना दिया दहेज़ लेना-देना दोनों अपराध हैं फिर भी हम-आप नहीं मानते हैं खुलेआम कानून का उलंघन करते हैं कमजोरी हमारे और आपके अन्दर है जिसका परिणाम आपके सामने है, गलती खुद करते हैं दोष सरकार और समाज को देते हैं, सरकार और समाज दोनों का निर्माण हम आप ही ने तो किया है ।

सत्यम सिंह बघेल

शराब प्रतिबंध के लिए हो राष्ट्र व्यापी जनआंदोलन

बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में पूर्णरूप से शराब पर प्रतिबंध लगा दिया है । अब बिहार में देशी के साथ विदेशी शराब भी उपलब्ध नहीं होगी। इसके तहत अब राज्य में शराब बेचना, रखना और पीना पूरी तरह प्रतिबंधित हो गया है, जो कि नीतीश सरकार का यह बेहद सराहनीय कदम है । बिहार जैसे राज्य में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर नीतीश कुमार ने यह बता दिया है कि वे सच में सुशासन बाबू हैं । क्योंकि हालिया एक सर्वे के अनुसार बिहार में शराब पीने वालों की संख्या लगभग 29 फीसदी है । महिलाओं के शराब पीने का प्रतिशत 0.2 फीसदी है । इस हिसाब से राज्य की कुल आबादी में लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग शराब पीते हैं । इतनी अधिक संख्या में जहां लोग शराब पीने वाले हों वहां शराब पर प्रतिबंध लगाना वास्तव मे काबिले तारीफ है । शराब पर पूर्ण प्रतिबन्ध के बाद बिहार राज्य गुजरात, नगालैंड और मिजोरम के बाद चौथा 'ड्राई स्टेट ' बन गया है। 1958 से गुजरात में भी शराब पर पूरी तरह से रोक है । 1961 से मणिपुर में भी नहीं मिलती है । शराब पर प्रतिबंध से राज्य की आम जनता खास कर महिलाओं में खुशी का माहौल बना है, आम जनता ने इस फैसले के लिए सरकार को धन्यवाद दिया ।  बिहार में शराबबंदी का बेहतर माहौल देखने को मिल रहा है, वहाँ अब तक 1,25,80,000 लीटर शराब को नष्ट कर दिया गया है। वैसे बिहार में  इसके पहले भी 1977-78 में भी राज्य में शराबबंदी लागू की गई थी ।  मगर सरकार इसे रोकने में नाकाम रही थी । बिहार से पहले आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मिजोरम और हरियाणा में शराबबंदी का प्रयोग नाकाम हो चुका है ।
मुझे लगता है कि बिहार में सामाजिक परिवर्तन के लिए यह सही समय है। इस फैसले से बिहार में सामाजिक परिवर्तन की बुनियाद रखी जा सकती । इसलिए नीतीश सरकार को चाहिए कि वह कड़े कानून के प्रावधान के साथ-साथ इस पहल को जनआंदोलन का रूप दे और लोगो को शराब से होने वाले नुकसान व बीमारियो से अवगत कराये तथा विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से आम जन को जागरूक करे ।
वैसे तो शराब पर प्रतिबंध के लिए पूरे देश में ही जन आंदोलन की जरूरत है । पूरे देश में शराब पर रोक लगना ही चाहिए । शराब सेवन से खोखले हो रहे समाज को बचाने के लिए आज जरूरी है कि शराब पर एक राष्ट्रीय सोच कायम हो ताकि इस बुराई को जड़ से उखाड़ कर फेका जा सके । युवाओं में शराब के बढ़ते सेवन से नयी पीढ़ी का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह से दुष्प्रभावित हो गया है । वहीं शराब सेवन के कारण सबसे ज्यादा नुकसान पारिवारिक जीवन और सामाजिक रिश्तों पर हो रहा है । शराब की दुःखदायी प्रवृत्ति के चलते जहां हजारों परिवार टूटकर बिखर गये हैं, वहीं शराबजनित अपराधों में भी लगातर वृद्धि हो रही है । सबसे दुःखद पहलू यह है कि महिलाओं के प्रति हुए अपराधों और अत्याचारों की वजह शराब ही है । महिलाओं के अपहरण और बलात्कार की घटनाएं दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं । सिगरेट, गांजा, अफ़ीम, चरस बुरी चीज़ें हैं, जुआ भी, वेश्यावृति भी और न जाने कितनी बुराइयाँ जिनकी सूची अनंत है, शराब भी उन्हीं में से एक है । शादी-विवाह हो, बच्चे का नामकरण संस्कार या और कोई धार्मिक उत्सव का अवसर, महंगी से महंगी शराब पीने और पिलाने का चलन घर-घर में है । आज हालात ये हैं कि एक सामर्थ्यविहीन व्यक्ति की भी पहुंच मंहगी शराब पर है । शराब पीने की लत एक चतुर, शक्तिशाली और मायावी बीमारी है। इसकी गिरफ्त में आने वाला इसे पाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाता है। शराबी को जब इसकी तलब होती है तो वह झूठ बोलने, कसमें खाने से भी परहेज नहीं करता। वह इस लत के सामने खुद को कमजोर पाता है। शराब की लत के शिकार लोगों को जब तक शराब न मिले, तब तक वे बेचैन रहते हैं। ऐसे लोग नशे के सेवन से पहले असामान्य रहते हैं और उसे पाने के बाद खुद को सामान्य स्थिति में पाते हैं। यह स्थिति ऐसे लोगों को पूरी तरह बीमार बना देती है। शराब की लत एक लाइलाज बीमारी है। यह कई बहाने से शरीर में प्रवेश करती है और धीरे-धीरे जिंदगी को अपनी गिरफ्त में ले लेती है। जब यह हद से बढ़ जाती है तो मुक्ति पाने के लिए शराबी छटपटाने लगता है।
एक वक्त था जब मदिरापान सामत वर्ग तक सीमित था । बडे उद्योगपति, बड़े अफसर और सामर्थ्यवान व्यक्ति ही शराब का सेवन करते थे, मगर आज यही शराब उस छोटे दायरे से निकलकर बहुत बड़े दायरे में फैल चुकी है । शराब पीना-पिलाना आज आधुनिकता का पर्याय बनता रह है । अभिजात्य वर्ग जो शराब पीता भी है और जीता भी, लेकिन निचला तबका जो शराब पीने में समर्थ तो नहीं है मगर पी रहा है और बे-मौत मर रहा है ।
शहरों की तरह गांव भी शराब के चपेट में है । गांव-गांव की हालत आज यह हैं कि पन्द्रह से बीस प्रतिशत किसान शराब के आदी होकर अपनी जमीन गवा चुके हैं और दाने-दाने को मोहताज हैं । शहरों से चली आधुनिकता की हवा ने गावों को भी अपने रंग में रंग लिया है ।
आज नतीजा यह है कि परिवार टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं । शराब और शराबियों के कारण सबसे अधिक अपमान और कष्ट माँ और पत्नी के रूप में नारी को ही झेलना पड़ता है । शराब के कारण ही लोग दुर्धटना के शिकार हो रहै हैं या अन्य तमाम तरह के अपराधों में लिप्त हो रहै हैं । शराब से शारीरिक और मानसिक बीमारियां तो होती ही हैं साथ ही ऐसे लोग अपराध से भी जुड़ जाते हैं। शराब मानसिक बीमारी का एक आधार है। यह तंत्रिका तंत्र, लिवर और पेट की बीमारियों की वजह बन सकती है। इससे दिल के रोग का भी डर रहता है। शराबी की वजह से सबसे पहले पारिवारिक समस्या बढ़ती हैं। वे तरह-तरह की घरेलू हिंसा करते हैं। शराब की लत कैंसर से भी घातक बीमारी है। कैंसर से सिर्फ एक शख्स बीमार होता है, पर शराब की लत सीधे तौर पर कई लोगों को बीमार बना देती है। शराब में इथाइल ऐल्कॉहॉल का इस्तेमाल होता है। यह इंसान के खून में आसानी से घुल जाता है। यही वजह है कि शराब लेने के साथ ही शरीर के तमाम अंगों पर इसका असर पड़ने लगता है। लंबे समय तक इसे लेने से लिवर सिरोसिस की समस्या हो सकती है। यह मुश्किल से छूटने वाली बीमारी है। इथाइल ऐल्कॉहॉल से पाचन क्रिया में भी गड़बड़ी होती है।
राजस्व के लोभ मे किसी भी सरकार ने इसे रोकने के लिए कठोरता से व प्रमुखता से पहल ही नही किया । अब तक जितनी भी सरकारें आई सभी के द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि शराबबंदी या मद्यपान निषेध जैसे कार्यों में सरकार की तरफ से नहीं बल्कि समाज की ओर से पहल होनी चाहिए । यह सत्य है कि सामाजिक चेतना और जनता के संकल्प के बिना शराबबंदी का कोई भी सरकारी प्रयास सफल नहीं हो सकता । किन्तु यह भी सत्य है कि राजनीतिक इच्छा स्पष्ट हो तो जनता भी शराबबंदी के निर्णय का हमेशा स्वागत करेगी, जिस तरह से बिहार में किया । शराब के कारोबार में फायदा उठाने वाला वर्ग बहुत छोटा है, जबकि शराब के दुष्परिणामों से आहत होने वाला वर्ग काफी बड़ा । हम भारतीय असहज मुद्दों से बचने में उस्ताद हैं। असहज मामलों पर चर्चा करने के बजाय हम ढोंगी और झूठा बनना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है शराब के सेवन का, जिस पर चर्चा से परहेज करना हम अच्छी तरह सीख चुके हैं। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम शराब से संबंधित हर चीज की सार्वजनिक रूप से आलोचना करेंगे। वहीं व्यक्तिगत स्तर पर करोड़ों भारतीय शराब का मजा लेते हैं। इनमें केवल बिजनेसमैन और कॉपरेरेट दुनिया में काम करने वाले लोग ही नहीं हैं, बल्कि राजनीतिज्ञ, डॉक्टर, शिक्षक और पत्रकार भी शामिल हैं। लेकिन अब समय आ गया है । समाज को गर्त मे धकेलने वाली इस कैंसर से भी घातक बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए राष्ट्र व्यापी जनांदोलन छेड़ने की आवश्यकता है । इसके लिए समाज, सरकार और प्रशासन वर्ग सभी को मिलकर पहल करनी होगी ।

सत्यम सिंह बघेल

भारत माता की जय पर आपत्ति क्यों

प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भारत माता की जय के नारे लगाने सिखाए जाने चाहिए। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा था कि अगर कोई उनके गर्दन पर चाकू भी रख दे तो वह भारत माता की जय नहीं कहेंगे। इसके बाद से पूरे देश में भारत माता की जय के इस नारे को लेकर बहस छीड़ि हुई है, हर दिन इस बात पर बढ़-चढ़कर बयान दिए जा रहे हैं। वहीं देशद्रोह के मामले में सशर्त जमानत पर रिहा हुए जेएनयू छात्र इस नारे को लेकर व्यंग कर रहा है कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों का नाम भी भारत माता की जय रख लूँगा, फिर स्कूल में उनका परिचय पूछा जायेगा तो वो भारत माता की जय बोल देंगे और उनकी फीस माफ़ हो जायेगी । कितनी शर्मनाक बात है कन्हैया जैसे लोग जो माता जैसे पवित्र शब्द का भी मजाक बनाने से नही चूक रहे हैं । आखिर क्यों चूकेंगे जब ये लोग देश के टुकड़े करने की बात करने से नही चूके तो फिर इनके लिए माता का मजाक बनाने मे क्या हर्ज है । ये वही लोग हैं जिनकी सत्ता  बन्दूक की नली से  निकलती है । इशरत जिनकी बेटी है, अफज़ल जिनका भाई है । याकूब जिनका बाप है, और कसाब जिनका बेटा है । आज वे ही बोल रहें हैं, उनकी भारत माता नहीं हैं । जिनके  इतिहास की काली किताबों में लोकतंत्र से व्याभिचार के अनेकों पाठ हैं । ये वही हैं जिनके एजेंडे में देश, माँ और राष्ट्र का कोई स्थान नही है, वो आज सवाल खड़े कर रहे हैं कि भारत माता कैसी है, क्यों है, कौन बोले, क्यों बोले और कहाँ बोले ।
ये वही लोग हैं तुष्टिकरण में लिप्त कुछ छद्म सेक्युलरों, वामपंथियों और अन्ना हजारे के मंच पर तिरंगा लहरा, भारत माता की जय बोलकर मुख्यमंत्री बने एनजीओ बाज कह रहे हैं भारत माता क्या है, भारत माता की जय क्यों बोलें, भारत माता पर व्यंग कर रहे हैं, भारत माता का उपहास उड़ा रहे हैं । ये वही हैं जिनको आयातित बाप का तो पता है लेकिन कड़वी सच्चाई स्वीकार करने में हिचकते हैं कि इसी मातृभूमि में जन्मे पले बढ़े , इसी धरती माता का अन्न, जल, वायु खा पीकर जी रहे हैं और मरने के बाद  ये  पाकिस्तान और चीन में नहीं बल्कि
हिन्दुस्तान की इसी धरती माता पर दफनाये और जलाये जायेंगे । ये वहीं लोग हैं जो याकूब को कन्धा देने से लेकर भारत माता की बर्बादी और भारत के टुकड़े टुकड़े करने का नारा देतें हैं और भूल जातें हैं कि जिस अशफाक, भगत और राजगुरु, आजाद के कारण वो इतनी आजादी में जी रहें हैं । उन्होंने कभी इसी आजादी के लिये हंसते-हंसते  जय हिन्द, भारत माता की जय और वन्दे मातरम कहकर अपने प्राण त्याग दिए थे । उसी धरती में जहाँ भारत माता की रक्षा के लिये हजारों अब्दुल हमीद, कलाम तंजील तक सो गये।
अरे जिनको अपनी जन्मदात्री माँ से ज्यादा अपने आयातित बाप की फिक्र है उनको तो नहीं, लेकिन एक ख़ास गिरोह को जरूर पूछना चाहिये, उस अशफाक से उस अब्दुल हमीद से और उस कलाम से कि 'मेरी माता कौन है?' भारत में रहकर भारत माता की जय बोलने में आखिर क्यों किसी को अपनी मातृभूमि के प्रति शर्म महसूस हो रही है ।
जब स्वतंत्रता आंदोलन हुआ था उस समय ‘वंदे मातरम’ के नारे ने ही सभी भारतीयों को एकजुट किया था। वंदे मातरम् का मतलब, "मां आपको प्रणाम"। क्या माता? किसकी माता?ईसाई माता नहीं, हिंदू माता नहीं, मुस्लिम माता नहीं, अगड़ी माता नहीं, पिछड़ी माता नहीं। माता तो माता है। सबकी माता, हर भारतवासी की माता, बच्चा-बच्चा की माता है "भारत माता", फिर उसकी जय बोलने में आपत्ति क्या है। क्यों ऐसा कहा जाता है कि उसमें पूजा है। किस धर्म ने माता की पूजा करने को नहीं कहा है। मुझे बताइए। मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं। भारत माता की जय का मतलब भारत माता की मूर्ति की पूजा नहीं है बल्कि उसके प्रति मन में भावना होना है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कुछ लोग तुष्टिकरण के शिकार होकर महज वोट बैंक तथा स्वार्थ की राजनीति के चलते भारत माता को भी धर्म से जोड़ रहे हैं, धार्मिक रंग दे रहे हैं । देश के वर्तमान हालात, गिरते हुए राजनैतिक स्तर को देखते हुए बेहद दुख होता है । आज कितने चिंता जनक हालात बने हुए हैं, कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में भारत माता की जय पर बहस हो रही है, हमारे देश की राजनीति इस बात पर उलझी है कि भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, भारत माता की जय बोलना पड़ेगा । कितनी शर्मनाक बात है । भारत माता जिसके लिए अनेको वीर जवानों ने हस्ते-हस्ते अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया। जिस भारत माता को अपनी जन्मदात्री से भी ऊपर दर्जा देने वाले देश के लाल अमर शहीदों ने अपना बलिदान दे दिया । आज उस भारत माता के नाम पर कुछ स्वार्थी नेता राजनीति करने मे लगे हैं । चन्द वोटों के खातिर आज भारत माता को भी मोहरा बनाने से नही चूक रहे हैं । भारत माता समस्त हिन्दुस्तानियों की माता हैं, सबसे ऊपर भारत माता और भारत माता की जय बोलना, उसकी शान बढ़ाना हर भारतवासी का कर्तव्य है । मातृभूमि के प्रति सबके अंदर प्रेम एवं सम्मान के भाव होना चाहिए, जिस मिट्टी में हम जन्मे, पले-बढ़े हैं, उसका सम्मान करना उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, हम भारत की भूमि पर जन्मे हैं । भारत की रक्षा करना, उसके प्रति सम्मान की भावना रखना, उसका गौरव बढ़ाना हमारी जिम्मेदारी है, यह हर भारतवासी की जिम्मेदारी है । हर भारतवाशी को भारत माता की जय से कोई आपत्ति नही होनी चाहिए। हरेक भारतीय भारत की जय कहना, भारत की मिट्टी की जय कहना , भारत के लोगों की जय कहना अपना कर्तव्य समझे । यह कोई जबरदस्ती नही है किन्तु अपनी मातृभूमि के सम्मान में एक आवाज दिल से अवश्य निकलनी ही चाहिए ।
"भारत माता की जय"
लेखक - सत्यम सिंह बघेल

तनाव सहने की घटती क्षमता से बढ़ती आत्महत्याएं

जमशेदपुर की रहने वाली प्रत्युषा बनर्जी का जन्म 10 अगस्त 1990 में हुआ था। प्रत्यूषा ने साल 2010 में कलर्स चैनल के हिट शो बालिका वधु में एंट्री ली थी । उनका चयन फेसबुक के माध्यम से हुआ था। इस धारावाहिक के चुनाव में प्रत्युषा ने 70 प्रतिभागियों को पछाड़कर अपनी जगह बनाई । इसके बाद आखिरी तीन प्रतिभागियों का चुनाव दर्शकों की वोटिंग के आधार पर किया गया , जिसमें प्रत्युषा को सबसे ज्यादा वोट मिले और उनका चुनाव बड़ी आनंदी के लिए किया गया। 16 साल की उम्र में ही प्रत्युषा ने टीवी सीरियल में काम करना शुरु कर दिया था। अभिनय  के साथ-साथ प्रत्युषा ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी और डिस्टेंस एजुकेशन के द्वारा अपनी बाकी की पढ़ाई पूरी की। प्रत्युषा बनर्जी अपने एक्टिंग करियर की गाइडलाइंस भी खुद बनाया करती थीं। अगर काम उनके मुताबिक नहीं होता तो वो उसे छोड़ देती। जमशेदपुर जैसे छोटे शहर से आकर टीवी की दुनिया में शौहरत हासिल करने वाली बालिका बधु की आनंदी के किरदार में अपनी प्रसिद्धि बटोरने वाली प्रत्यूषा बनर्जी ने आनंदी के किरदार के बाद अभिनय की दुनिया में और भी कई किरदार निभाये, लेकिन इस किरदार ने उन्हें जो पहचान दिलाई वो किसी और से नहीं मिल पायी । छोटी उम्र में ही प्रत्युषा ने बड़ा मुकाम हासिल कर लिया था लेकिन एक समय ऐसा आया कि फर्स से अर्स तक पहुंचने वाली तथा संघर्ष के हर दौर से गुजरकर सफलता के शिखर तक पहुंचने वाली प्रत्युषा बनर्जी आखिर में हिम्मत हार गई और घर में पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली। क्या वजह है, कि संघर्ष कर ऊंची उड़ान भरने वाली प्रत्युषा बनर्जी अपने सफलता के दिनों में जिंदगी की जंग हार गई । प्रत्यूषा बनर्जी की मौत से जहां उनका परिवार सदमे में है, तो वहीं उनके प्रशंसक भी इस गम से उभर नहीं पा रहे हैं। प्रत्युषा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत की खबर से आहत होकर रायपुर के गोकुलनगर गुढयारी इलाके की रहने वालीं मधु महानंद ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। आनंदी यानी प्रत्यूषा यानी सूर्य की अंतिम रश्मि का भरी दोपहर में ही सूर्यास्त हो गया। झारखंड की संकरी गलियों से निकलकर चांद छूने की तमन्ना लेकर कांक्रीट के जंगल में पहुंची एक होनहार लड़की प्रत्यूषा को चांद तो नहीं मिला किन्तु मौत जरूर मिल गई। उनकी कामयाबियों का जिक्र और क्या हुआ, कैसे हुआ आदि का तबसरा तो तमाम चैनल लगातार कर ही रहे हैं, पर यह कोई नहीं कह रहा कि संस्कारों से भटकर नकारात्मकता को गले लगाने का परिणाम कितना बुरा होता है। उसके साथ जाम टकराने वाले तो थे , चौंधियाती रातों के ढलने तक फरेबी कहकहे लगाने वाले भी थे, नहीं था तो कोई एक ऐसा अपना जो सचमुच अपना होता। जिससे मन की बात कही जा सकती। कस्बाई मानसिकता की एक लड़की को मुंबई ने बिंदास तो बना दिया, लेकिन इतना तन्हा भी कर दिया कि दर्द बांटने को एक कंधा भी न था। ऐसा एक भी कंधा होता तो चार कंधों की जरूरत इस उम्र में न पड़ती। आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ और पश्चिमी सभ्यता की दुहाई देने वाले भूल जाते हैं कि जड़ों से टूटकर जिंदगी से जुड़े रह पाना बिल्कुल सम्भव नही है । ऐसी कामयाबियां बेमानी हैं जिनमें जिंदा रहने का मकसद ही हवन हो जाए।
हम किसी की आत्महत्या की खबर पढ़कर दुखी होते हैं या आश्चर्य जताकर भूल जाते हैं । लेकिन क्या किसी ने सोचा है ? आत्महत्या के आंकड़े दिन पर दिन क्यों बढ़ रहें है । इसकी मुख्य वजह क्या है ? यह जानना, समझना बेहद जरूरी है । प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या केवल उनका मामला नही है बल्कि यह एक समाज का गंभीर विषय है । क्योंकि हमारे देश में किसी न किसी वजह से हर दिन न जाने कितने लोग आत्महत्या कर गुमनाम हो जाते हैं । आज समाज में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। परीक्षा के समय छात्र-छात्राओं द्वारा मौत को गले लगाने की घटनाएं आम बात हो गई है। हर वर्ष ऐसी घटनाएं सामने आ रही है। सिर्फ छात्र-छात्राएं ही नहीं आम लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं। छोटी-छोटी बातों व तनाव को लेकर लोग सीधे जीवन को ही समाप्त करने का मन बना रहे हैं। शहरी क्षेत्र हो या गांव ऐसी घटनाएं अब आम होती जा रही हैं।लोगों में तनाव सहने की क्षमता घट चुकी है, जो बेहद चिंताजनक विषय है । आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किशोरावस्था के होते हैं। इस समय उनमें सोचने-समझने की दक्षता पर्याप्त नहीं होती। मानसिक रूप से वे पूरी तरह परिपक्व नहीं होते। छात्र-छात्राएं इसी अवस्था से पढ़ाई आदि को लेकर माता-पिता, समाज व दोस्तों का दबाव भी तनाव का कारण बनता है।कभी सिर्फ बड़ी उम्र के लोगों को होने वाला डिप्रेशन अब तेजी से स्कूल जाने वाले बच्चों को अपना आसान शिकार बना रहा है। एक शोध के नतीजे बताते हैं कि बच्चों में तेजी से बढ़ रही आत्महत्या की घटनाओं के पीछे सबसे बड़ी वजह यही डिप्रेशन है। अहम बात यह है कि बच्चों में डिप्रेशन के कारण बहुत ही छोटे-छोटे होते हैं, जिन्हें अभिभावक और समाज समझ नहीं पाते। विडम्बना यह है कि जो मां-बाप उन्हें दुनिया में लाते हैं प्राय: उन्हीं की महत्वाकांक्षाओं का दबाव उनकी जान ले लेता है। बच्चों में 80 प्रतिशत आत्महत्याएं पूर्व संकेत के बाद ही होती हैं। कुछ ही खुदखुशी क्षणिक आवेग में होती हैं। आत्महत्या करने वाले ज्यादातर बच्चे डिप्रेशन, खासकर सायकोटिक डिप्रेशन का शिकार होते हैं। उनके मन में हर समय एक तरह का अपराधबोध मौजूद होता है। सबसे ज्यादा वे इस बात से दुखी होते हैं कि अपने माता-पिता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। किसी भी गलत काम या दुखद घटना के लिए भी बच्चे कई बार खुद को दोषी मान लेते हैं और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। निराशा और अवसाद की चरम सीमा होती है आत्महत्या, जिससे बचने के लिए जरूरी है कि बच्चों को डिप्रेशन से बचाया जाए। वैसे निराशा, अवसाद की यह प्रवत्ति सिर्फ बच्चों को ही नही बल्कि बुजुर्ग, युवा, जवान, महिला, अमीर, गरीब सभी ग्रसित हैं। आज हर वर्ग, हर उम्र के लोग आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर रहे हैं । आखिर क्यों आत्महत्या की घटनाएं दिन पर दिन बढ़ रहीं हैं, क्यों लोग अवसाद से ग्रसित हो रहे हैं ? क्यों लोगों में तनाव सहने की क्षमता कम हो रही है ? इसकी मुख्य वजह पर गौर किया जाये तथा हमारी शिक्षा व्यवस्था में उन बातों को प्रमुखता से बताया जाये, जिनकी जानकारी देना अतिआवश्यक है। जैसे जीवन से प्रेम करना, संघर्षशील लोगों का उदाहरण देना, दुख मे खुद को किस तरह संभाल कर रखें, संघर्ष में खुद को कैसे प्रेरित करें, खुश रहने के तरीके, नेगेटिव सोच से बचने की कोशिश करना, हमेशा सकारात्मक बने रहने और सकारात्मकता के फायदे के बारे में बताया जाये, किसी भी काम मे धैर्य रखने के बारे में एवं इस तरह से लोगों में सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणादायक बातें बताना बहुत आवश्यक है ।

सत्यम सिंह बघेल ।

जल संकट : मदद करना हम सब की जिम्मेदारी

बारिश कम होंने की वजह से देश के अधिकांश राज्यों में जल संकट की स्थिति गहराई हुई है । सबसे अधिक सूखे की बदतर हालात महाराष्ट्र में बनी हुई है । लगातार चौथी बार महाराष्ट्र सूखे का सामना कर रहा है। सबसे ज्यादा असर औरंगाबाद, लातूर और विदर्भ के जिलों में देखने को मिल रहा है। कई तालाबों और नदियों में पानी 4% से भी कम बचा है । वहीं मराठवाड़ा में नदी और डैम पूरी तरह से सूख चुके हैं। भयंकर सूखे के कहर की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।  यहाँ वर्ष 2016 में हर महीने करीब 90 किसानों ने आत्म हत्या की । पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है । मौजूदा समय में महाराष्ट्र में करीब 15,000 गांव गंभीर जलसंकट से जूझ रहे हैं, जिनमें से अधिकांश गांव लातूर, बीड और उस्मानाबाद जिले में आते हैं। इन गॉवों में करीब 2.45 करोड़ आबादी है। जिनमे पांच लाख से अधिक लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा पैदा हो गया है। जिले को पानी की सप्लाइ करने वाले मंजरा डैम और धानेगांव नदी के सूख जाने से पानी की भारी कमी हो गई है और मराठवाड़ा में केवल टैंकर के पानी के सहारे मरीजों का उपचार करने में डॉक्टरों को काफी मुश्किल हो रही है। स्थिति इतनी खराब है कि लातूर में लगभग 160 क्लिनिक्स और हॉस्पिटल्स ने पहले से तय सर्जरी में काफी कमी कर दी है और वे केवल इमरजेंसी ऑपरेशन ही कर रहे हैं। आज हालात यह बने हुए हैं कि मराठवाड़ा में लोगों को तीन-तीन दिन तक पानी नहीं मिल पा रहा है ।
पानी की किल्लत दूर करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें ट्रेन के जरिए पानी पहुंचा रही हैं। भारतीय रेलवे की 'जल रेलगाड़ी' करीब 5,50,000 लीटर पेयजल की सौगात लेकर मंगलवार को महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त जिले लातूर पहुंची। रेल मंत्री सुरेश प्रभु को मैं धन्यवाद कहना चाहूँगा, जिन्होंने पानी भेजने की यह पहल कई दिन पहले की थी। उनके गृह राज्य महाराष्ट्र के कई हिस्से विशेषकर लातूर जिले के गांव गंभीर जलसंकट से जूझ रहे हैं । प्रभु के दिशा-निर्देश के बाद पिछले दिनों 50 टैंक वैगन राजस्थान के कोटा वर्कशॉप भेजे गए थे, जहां उन्हें अच्छे से साफ किया गया और आगे की यात्रा के लिए सांगली भेज दिया गया। भारतीय रेलवे की लातूर के सूखाग्रस्त गांवों की प्यास बुझाने के लिए ऐसी और ट्रेनें भेजने की योजना है। इन्हें भेजे जाने का समय फिलहाल तय नहीं है।
वहीं सूखे से बेहाल महाराष्ट्र में आईपीएल मैच कराने को लेकर विवाद चरम पर है । बॉम्बे हाईकोर्ट में आईपीएल मैचों को दूसरे राज्य में शिफ्ट करने की पिटीशन पर सुनवाई चल रही है। उसमें कहा गया है कि आईपीएल के दौरान महाराष्ट्र के तीन स्टेडियम में करीब 60 लाख लीटर पानी यूज होगा। पीआईएल लगाने वाले के वकील का कहना है कि इंटरनेशनल मेंटेनेंस फॉर पिच गाइडलाइन्स के मुताबिक, एक मैच के लिए ग्राउंड मेंटेनेंस में करीब 3 लाख लीटर पानी लगता है। आईपीएल के 20 मैच महाराष्ट्र के तीन ग्राउंड पर होने हैं, जो कुल आईपीएल मैचों का एक-तिहाई है। इनमें 8 मैच मुंबई में, 9 मैच पुणे में और 3 मैच नागपुर में होंगे। इस तरह 20 मैचों के दौरान पिच मेंटेनेंस पर करीब 60 लाख लीटर पानी यूज किया जाएगा।
लेकिन मेरा मानना है कि कुछ टैंक भेजने से या आईपीएल मैचों को शिफ्ट करने से प्रॉब्लम खत्म नहीं होगी। यह एक बेहद गंभीर मुद्दा है, इस पर संवेदनशील होकर विचारने की आवश्यकता है । इसके बारे में दूसरे तरीके से सोचने की जरूरत है। आईपीएल शिफ्ट करने से मामला सुलझ जायेगा या समस्या खत्म हो जायेगी यह सब बातें सिर्फ सुनने-कहने में अच्छी लगती हैं । जबकि वास्तविकता यह है कि समस्या से निपटने के लिए बड़े रूप से योजना बनाने की आवश्यकता है।
सोचना होगा कि जिन इलाकों में सूखा है वहां स्थाई रूप से हमेशा के लिए किस तरह पानी भेजा जाएं । क्योंकि महाराष्ट्र में सूखे की समस्या आजकल या एक-दो सप्ताह की नही है बल्कि यह लगातार चार वर्षों से बनी हुई है । इसलिए बृहद रूप से पानी उपलब्ध कराने की योजना तैयार की जानी चाहिए । अगर हमारी सरकार पूर्व में ही सूखे को लेकर संवेदनशील होकर कार्य करती तो हो सकता है, यह नौबत नही आती ।
वैसे जल संकट की स्थिति से महाराष्ट्र ही नही बल्कि मध्यप्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना समेत 10 राज्य सूखे की चपेट में हैं । इन राज्यों में भी सूखे से हालात इतने बदतर हो गए हैं कि लोग पीने के पानी तक को तरस गए हैं और अब पलायन करने को मजबूर हैं । यूपी और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में बंदूकों के सहारे पानी की निगरानी की जा रही है। जिन क्षेत्रों में जल संकट गहराया हुआ है, वहां के लोगों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है,  जीना मुश्किल हो गया है । इसलिए केंद्र तथा सभी राज्य सरकारें राज्यों के उन क्षेत्रों को चिन्हित करें जहां जल संकट गहराया हुआ है और वहां के रहवासियों को पानी उपलब्ध कराकर हर सम्भव मदद करें । सिर्फ सरकार ही नही बल्कि प्रशासन तन्त्र, सभी राजनैतिक दल तथा सभी तरह के संगठन और समाज के हर व्यक्ति को आज इस दिशा में सहयोग करने की जरूरत है । जिस क्षेत्र में पानी की उपलब्धता है उस क्षेत्र से पानी एकत्रित कर पानी पहुंचाया जाये और इसके लिए शासन, प्रशासन, समाज तथा सामाजिक संगठन सभी मिलकर गंभीरता से संवेदनशील होकर काम करें, जल संकट से जूझ रहे लोगों की मदद करना सभी देशवासियों की जिम्मेदारी है । क्योंकि जल बिना जीवन सम्भव नही है । जल ही तो जीवन है । इंसान बिना भोजन के रह सकता है लेकिन बिना पानी के जीवित रह पाना मुश्किल है । इसलिए हर व्यक्ति, जल संकट से जूझ रहे लोगों तक पानी पहुंचाने में अपना योगदान अवश्य दें, यह सिर्फ सरकार का काम नही है, बल्कि यह हम सब का कार्य है, यह संवेदना से जुड़ा कार्य है, इंसानियत से जुड़ा कार्य है, मानवता से जुड़ा कार्य है ।

सत्यम सिंह बघेल

Wednesday, March 30, 2016

मुझे चलते ही जाना है


मुश्किलों का पड़ाव है,
उमंगों का ठहराव है,
मैं चलूँ कैसे,
रुका हुआ हूँ,
ठहरा हुआ हूँ ।

मैं ठहर भी नहीं सकता,
पैरों में छाले हैं,
रास्ते पथरीले हैं,
कहीं काटें तो
कहीं दल-दल है ।

कहीं गहरी खाई तो
कहीं रपटीली चढ़ाई है,
पथ से होकर गुजरना है,
लक्ष्य के शिखर तक
पहुंचना है ।

हाथों में दीया है,
तूफानों का डेरा है,
मंजिल करीब है,
रात ढलने को है,
सूरज निकलने को है ।

इसलिए अब मैं,
टूट नहीं सकता,
झुक नहीं सकता,
कामयाबी के अंबर
चुमते जाना है,
कितनी ही तपती
रेत मिले
मुझे चलना है,
चलते ही जाना है ।

लेखक - सत्यम सिंह बघेल

Tuesday, March 8, 2016

महिला शक्ति खुद को पहचानो

 वर्ष की तरह इस वर्ष भी विश्व महिला दिवस पर शुभकामनाएं, जगह-जगह समारोह, बयानबाजी, बड़े-बड़े संकल्प व वादे और फिर स्थिति जस की तस। शक्ति स्वरूपा नारी शक्ति आखिर कब तक महज विचार-विमर्श की विषय-वस्तु बनकर रहेंगी, कब उपेक्षित होती रहेंगी, कब तक अपनी प्रतिभा की तिलांजलि देती रहेंगी, कब तक अपने हुनर के पर काटती रहेंगी, कब तक अपनी बौद्धिकता का हनन होते हुए देखेंगी, आखिर कब तक । क्यों खुद महिलाओं का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता कि समस्याएं उनकी हैं, चुनौतियां उनकी हैं, बात उनके अस्तित्व की है तो फिर पुरुष वर्ग कौन होते हैं उनको सशक्त बनाने वाले? आखिर महिलाएं क्यों खुद को कमजोर मानकर चार दीवारी के अंदर कैद होकर रह जाती हैं? क्यों अपने अधिकारों का हनन होने देती हैं? क्यों खुद अपनी दिशा-दशा तय नही कर पाती आखिर क्यों ? नारी शक्ति शक्तिशाली होते हुए क्यो खुद को असहाय महसूस करती हैं, क्यों अपनी प्रतिभा की पहचान नही पाती है ? आखिर क्यों ?  वाकई में यह विषय विचार-मंथन का विषय है मुख्यरूप से महिलाओं के लिए। 'मेरे हिसाब से महिला सशक्तिकरण को लेकर सोच बदलने की जरूरत है। आप उसे सशक्त बनाते हैं, जो कमजोर है। जिनके पास क्षमता है शक्ति है, उसे सशक्तिकरण की जरूरत नहीं। दुनिया की आधी आबादी के रूप मे मानी जाने वाली नारी शक्ति के प्रति सहयोगात्मक व्यवहार न अपनाते हुए उसे अधिकारों से वंचित रखने, उसे शोषित करने उसकी प्रतिभा को चार दिवारी के अंदर कैद करने, उसे खुद को कमजोर महसूस कराने में, हमेशा कम आंकने में कहीं ना कहीं पुरुष वर्ग ही जिम्मेदार है।
समाज में दोनों वर्गों का समान स्थान है, किन्तु
पुरुष वर्ग अब तक  महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार करता रहा और उनके अस्तित्व को कुचलता रहा है । उसे हमेशा कमजोर बनाता रहा और असहाय बताता रहा ।
ऐसा भी नहीं है कि स्थितियों में सुधार नहीं हुआ है, लेकिन समाज में एक तबके की महिलाओं की स्थिति अभी भी वैसी की वैसी ही बनी हुई है, आज हम देखते हैं कि शहर रहने वाली और गावों में रहने वाली महिलाओं के बीच, उनके अधिकारों, उनके कर्तव्यों को लेकर व्यापक अंतर है । समय आ गया है इस अंतर को समाप्त करने के लिए पुरुष, परिवार, समाज, सरकार के साथ-साथ खुद महिलाओं को निडर होकर आगे आने कि और साथ ही नारी शक्ति को अपनी प्रतिभा का परिचय देने की आवश्यकता है ।
सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्यप्रदेश

Wednesday, February 24, 2016

समाज में व्याप्त कुरीतियों

पहले का समाज अत्यधिक कुरूतियों की जंजीरों सेजकड़ा हुआ था, उस समय समाज में काफी कुरुतियाँ प्रचलित थी, जैसे कन्या वध, औरतों एवं लड़कियों की क्रय-विक्रय की प्रथा, वेश्यावृत्ति, बाल-विवाह, पुत्री के जन्म को अशुभ मानना, पर्दा प्रथा, जौहर या सती प्रथा इत्यादि | बहुत से विद्वानों ने इन प्रथाओं को पाप तथा आत्महत्या की संज्ञा देते हुए इसका विरोध किया | दूसरी तरफ राजा राममोहन राय के प्रयासों से बैन्टिक ने एक कठोर कानून बनाकर सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया, जिसके कारण साथ-साथ कई कुरुतियों का अन्त हुआ | उस समय समाज का दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण तथा अवैज्ञानिक था, उस समय समाज भाग्यवादिता एवं कुसंस्कारों के प्रभाव से ग्रसित था और उनमें तार्किक क्षमता की अत्यंत कमी थी | इसी कारण से समाज में भयानक गंभीर कुरुतियाँ फैली हुई थीं, कन्या बद्ध, औरतों एवं लड़कियों की क्रय-विक्रय की प्रथा, वेश्यावृत्ति, बाल-विवाह, पुत्री के जन्म को अशुभ मानना, पर्दा प्रथा, सती प्रथा जैस भयावह कुरूतियों के साथ-साथ समाज और भी अनेक कुरूतियों से जकड़ा हुआ था | उस समय समाज में छुआछूत की भावनाओं ने मजबूती से अपनी जड़ें जमाई हुई थी समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग का पूर्ण रूप से अनादर कर रहा था | जब कि यह प्रथा समाज के लिए अत्यंत गंभीर समस्या थी । लोग यह समझते थे कि जाति व्यवस्था ईश्वर की देन है। उन्हें यह नहीं पता था कि यह कुछ स्वार्थों का पोषण करने वाली एक सामाजिक व्यवस्था है। अब मनुष्य की महत्ता का आधार कर्म के स्थान पर जन्म बना हुआ था | ऊँच-नीच की एक गहरी खाई बनी हुई थी जो ऊँची जाति में जन्म लेता उसका समाज में आदर, सत्कार होता था, वह सम्मानीय व्यक्ति माना जाता था, भले ही उसके कर्म कितने ही बुरे क्यों न हों और जो व्यक्ति नीची जाति में जन्म लेता था, भले ही उसके कर्म आदर्शमय हों उसे हर जगह उलाहना ही मिलती थी | उस समय, वेश्यावृत्ति, अंधविश्वास, समाज के परम्परागत नियम-कायदे जैसी कई सामाजिक कुरुतियाँ समाज में फैली हुई थीं | स्त्री को सिर्फ उपभोग की वस्तु ही माना जाता था | ऐसी और भी अनेक कुप्रथाएं समाज में फैली हुई थीं लेकिन आधुनिक शिक्षा के सम्पर्क से लोगों के दृष्टिकोण का विकास हुआ और वे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के नवीन प्रकाश की ओर तीव्र गति से बढ़े एवं जागरूक हुए। भारतीय समाज जैसे-जैसे शिक्षित होता गया इन कुप्रथाओं का विरोध करता गया और साथ ही इन कुप्रथाओं से समाज को मुक्त करता गया | जैसे-जैसे समाज शिक्षित हुआ आधुनिकता का जैसे ही समाज को ज्ञान हुआ वैसे ही समाज में छुआछूत की भावना कम हो गई। लोग यह समझ गये कि जाति व्यवस्था ईश्वर की देन नहीं है। अपितु कुछ स्वार्थों का पोषण करने वाली एक सामाजिक व्यवस्था है। अब मनुष्य की महत्ता का आधार जन्म के स्थान पर कर्म बन गया इस प्रकार शिक्षा एवं समाज की जागरूकता ने निम्न जातियों को अपनी सामाजिक स्थितियों को ऊँचा उठाने के लिए प्रेरित किया और जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया। अस्पृश्यता, बहुपत्नी प्रथा, देवदासी प्रथा एवं मृत्यु भोज आदि सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित हुआ एवं इनके दुष्परिणाम से समाज अवगत हुआ । परिणामस्वरुप देश के विभिन्न भागों में अनेक धार्मिक एवं समाज सुधार आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। इन समाज सुधारकों एवं इनके आंदोलनों ने स्त्रियों की दशा सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया | साथ स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होने की प्रेरणा दी | समाज सुधारकों ने स्त्री-पुरुष समानता पर बल दिया और स्त्रियों को घर की चार दीवारी से बाहर निकल कर कार्य करने की स्वतंत्रता का समर्थन किया। यही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों के प्रवेश का भारतीय समाज को प्रोत्साहन दिया। यहीं से भारतीय समाज में आर्य समाज, ब्रह्मसमाज एवं रामकृष्ण मिशन आदि आन्दोलनों का उदय हुआ। साथ ही इन आंदोलनों एवं आधूनिक शिक्षा के कारण समाज जागरूक हुआ और समाज ने बाल-विवाह एवं बहु-विवाह पर प्रतिबन्ध लगाने पर बल दिया तथा विधवा विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया। लोगों के खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा एवं व्यवहार के अन्य प्रतिमान प्रभावित हुए | समाज में अछूतों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में रहने वाले लोग उनके साथ छुआछूत का व्यवहार करते थे। आधुनिक शिक्षा एवं समाज की जागरूकता ने समाज में समानता का स्थान दिलवाया। कुप्रथाएं मिटाने एवं समाज में जागरूकता लाने के लिए न जाने कितने आन्दोलन हुए और न जाने कितने आन्दोलनकारियों ने समाज सुधारकों ने इस कुप्रथा को मिटाने की लड़ाई लड़ी और वे बहुत हद तक सफल भी हुए | किन्तु आज भी समाज में किसी घातक बीमारी की तरह ये कुप्रथायें फैली हुई हैं और समाज को अंदर ही अंदर खोखला कर रही हैं, समय बदल गया लेकिन कुछ कुरुतियां वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं लेकिन अब समय आ गया है इन कुरूतियों को समाज से उखाड़ फेकने का । हम हर दिन इस ब्लॉग के माध्यम से समाज में फैली कुरुतियां उसके दुष्प्रभाव और उसे समाज से उखाड़ फेकने के बारे में चर्चा करेंगे ।
लेखक-सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्य प्रदेश 

Tuesday, February 23, 2016

जीएसटी लागू होने से होगा आमजन को फायदा

आजकल एक शब्द कानों में खूब गूँज रहा है  GST बिल | GST अथार्त् गुड्स एन्ड सर्विसेस टैक्स जिसे हम वस्तु एवं सेवा कर बिल भी कह सकते हैं | यह बिल स्टेंडिंग कमेटी से पास हो गया और  लोकसभा से भी पास हो गया परंतु राज्यसभा में हंगामें के कारण अटका पड़ा है | वैसे यह बिल कांग्रेस के शासन काल में ही लागू होना था | 2006-07 के आम बजट में  वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि सरकार 1 अप्रैल 2010 से जीएसटी लागू करेगी लेकिन अभी तक लागू नहीं हो पाया है, अभी भी रुका हुआ है | जो कांग्रेस सत्ता पक्ष में रहते हुये जीएसटी बिल लागू करना चाह रही थी और भाजपा उसका विरोध कर रही थी अब वही कांग्रेस विपक्ष में आने के बाद बिल का विरोध कर रही है और अब भाजपा बिल लाना चाहती है | यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे राजनेता भूल जाते हैं कि संसद काम करने के लिए है और वे जनता की समस्याओं के निवारण करने के लिए हैं, लेकिन हमारे देश के जन सेवक कुर्सी पर बैठकर सिर्फ अपनी निजी राजनैतिक रोटियां सेकने में लगे रहते हैं | बहुत दुःख होता राजनेताओं की इस तरह की अनैतिक कार्यशीलता देखकर |
मानसून सत्र के दौरान सदन में वित्त मंत्री ने जैसे ही बिल पेश किया पेश किया तृणमूल, वाम मोर्चा, और एनसीपी ने वाकआउट कर दिया वहीं अन्नाद्रमुक ने अपना विरोध जताया और यही नजारा पिछले मानसून सत्र में देखने को मिला | इस तरह हंगामें के चलते मोदी सरकार ने बिल को लोकसभा से तो पारित करा लिया लेकिन राज्यसभा में अटक गया | सरकार इस बिल को अब तक का सबसे बड़ा टेक्स रिफार्मर बता रही है | भारत में सरकार के संघीय ढांचे होने के कारण जीएसटी बिल का स्वरूप दोहरा होगा, क्योंकि इसमें केंद्र और राज्य के जीएसटी शामिल होंगे। यह बिल देश भर में अलग-अलग टेक्स प्रणाली को ख़त्म कर एक ही टेक्स प्रणाली लागू करने के लिए है |
सरकार ने इस टैक्स पर अप्रैल 2016 से अमल करने का लक्ष्य रखा है । कई अर्थशास्त्रियों ने इसके लागू होने के बाद GDP ग्रोथ एक साल में 2-3 प्रतिशत बढ़ने की पूरी-पूरी उम्मीद जताई है | यह बिल देश की अर्थव्यवस्था की दिशा में क्रान्तिकारी कदम साबित हो सकता है | अगर वस्तु एवं सेवा कर लागू हो गया तो, सेंट्रल सेल्स टैक्स, एक्साइज़, लग्जरी टैक्स, एंटरटेनमेंट टैक्स, चुंगी, वैट जैसे सभी कर समाप्त  हो जाएंगे । इससे पूरे देश में एक उत्पाद लगभग एक जैसी ही कीमत पर मिलेगा |अभी तक कोई भी सामान खरीदने पर 30-35 टैक्स के रूप में दिया जाता है । जीएसटी लागू होने के बाद  टैक्स घटकर 20% तक आ जायेंगे। कुछ विरोध करने वाले राज्यों का कहना है कि हमें 27% से अधिक जीएसटी दिया जाये | लेकिन केंद्र का कहना है कि 20% से अधिक दर तय की गई तो उत्पाद और सेवायें महंगी हो जाएंगी । लेकिन अब केंद्र के मनाने पर 20% तक के लिए सभी राज्य राजी हो गए हैं । जैसे यदि जीएसटी 20% तय होता है तो केंद्र और राज्य को Tax Revanue(टेक्स रेवेन्यु) का 10-10% हिस्सा मिलेगा और बाकी के टैक्स से जनता को छूट मिलेगी |
कुछ राज्य पैट्रो उत्पाद को जीएसटी के अंतर्गत नहीं रखना चाहते, इसलिए वे बिल का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उनको एक-तिहाई टैक्स प्राप्ति केवल पेट्रोल-डीजल से होती है | परंतु मोदी सरकार ने GST के अंतर्गत टैक्स प्राप्ति में हानि होने वाले राज्यों को केंद्र की ओर से पाँच वर्ष तक, पहले वर्ष में 100%, दूसरे वर्ष में 75% और तीसरे से पांचवें वर्ष तक 50% की क्षतिपूर्ति का प्रावधान किया है । इसके बाद अब तमिलनाडु और एक दो राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों से सहमति भी हो गई है |
अलग-अलग प्रणाली को बंद कर देश भर में एक ही टेक्स प्रणाली लागू करने के लिए ही जीएसटी बिल का प्रारूप तैयार किया गया है | अभी तक सभी राज्यों में अलग-अलग स्थानीय  टैक्स लगाया जाता है, जिससे विभिन्न राज्य में एक ही वस्तु का अलग-अलग मूल्य होता है,  जैसे मोटर वाहन और डीजल  का मूल्य हर राज्य में अलग-अलग होता है । कई सामानों की कीमत सभी राज्यों में अलग अलग होती है । परंतु जीएसटी लागू होने के बाद ऐसा नहीं होगा । प्रत्येक उत्पाद पर लगने वाले टैक्स में केंद्र और राज्यों को बराबर भाग मिलेगा । इससे पूरे देश में एक प्रोडक्ट लगभग एक जैसी ही कीमत पर मिलेगा और पहले से कम कीमत पर मिलेगा | इस तरह जीएसटी बिल के पास हो जाने से आमजनता का भला होगा और देश की आर्थिक दिशा में क्रांतिकारी कदम होंगे, परन्तु यह बिल निजी सिआसी जंग की भेंट चढ़ा है |
लेकिन अब सरकार द्वारा जीएसटी बिल को प्रमुखता से लागू करना चाहिये और सभी राजनैतिक दलों को भी अपनी निजी राजनैतिक सिआसत छोड़कर देश के लिए और आमजन की भलाई के लिए बिल का समर्थन करना चाहिए | जिससे जानता की भलाई हो सके, देश की आर्थिक गति तेजी से बड़े, अर्थव्यवस्था मजबूत हो, जनता की जेब में पैसा बचे, अधिक आय हो सके और जो राज्य वस्तु एवं सेवा में अधिक कर वसूलते हैं उन पर भी अंकुश लग सके | इसलिए मैं देश के सभी दलों और जनसेवकों से निवेदन करता हूँ कि वे अपनी सिआसी रोटियां सेकना छोड़े और देश के प्रति ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें |
सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्य प्रदेश

नारी शक्ति की लुटती अस्मिता : सभ्य समाज मौन

वर्तमान समय में हमारे देश में निरंतर बढ़ती बलात्कार की घटनायें आज समाज के लिए मुख्य रूप से चुनौती का विषय बन चुकी हैं, बलात्कार की निंदनीय घटनाओं पर पिछले कुछ बर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो आंकड़ों में बहुत ही निराशाजनक वृद्धि हुई है, जिसने ना सिर्फ हमारी सुरक्षा व्यवस्था बल्कि तमाम सामाजिक पहलुओं को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है | जिस नारी शक्ति को हमारे देश में देवी मानकर उसकी उपासना की जाती है, राक्षशी क्रूरता से भरे दरिन्दे उसी नारी शक्ति की अस्मिता को तार तार कर रहें हैं और हमारा सभ्य समाज सबकुछ मौन होकर देख रहा है | वर्तमान माहौल में मीडिया द्वारा इन घटनाओं को अपेक्षाकृत अधिक कवरेज तो मिलता है किन्तु फिर भी इन घटनाओं की मृत अथवा जीवित पीड़ितायेँ किसी भी सहायता व सहानुभूति से वंचित ही रह जाती हैं, देश के किसी भी शहरों में  हो या जहां भी घटनाएँ हुईं, पीड़ित लड़कियों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ते नहीं दिखते | सभ्य कहे जाने वाले इस संस्कारित समाज में कुकृत्यता के खिलाफ आवाज उठना तो दूर की बात है यहाँ तो पड़ोसी भी पीड़ित परिवार के साथ पुलिस स्टेशन तक जाने की सहानुभूति नहीं दिखाता, क्या यह स्वार्थ के दीमक से संक्रमित हमारी कमजोर मानवता के खोखलेपन को नहीं उघेड़ता? क्या ऐसे में भारत को सभ्य कहा जा सकता है? आदर्शों व महान नैतिक मूल्यों की संस्कृति की नींव पर विकसित हुए इस राष्ट्र में आज प्रत्येक 22वें मिनट किसी भेड़िये द्वारा एक विवश नारी की अस्मिता को तार तार किया जाता है | भारत में प्रतिदिन 60 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटानाओं को अंजाम दिये जाने की बात सामने आती है | हम देखें तो आज नैतिक मूल्यों को खोते हुए भारत में बलात्कार सबसे तेजी से बढ़ता अपराध है जिसमें आकड़ों से स्पष्ट होता है कि जहाँ 1971 में 2487 बलात्कार की घटनायें घटी वहीं 2011 में ये अमानवीय  घटनायें बढ़कर 24206 हुई इस तरह 873.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वही एक अन्य आंकड़े में ऐसा बताया गया है कि भारत में बलात्कार के ग्राफ में 30 प्रतिशत की रफ़्तार से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है जो कि देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाला आंकड़ा है | सन 2010 की अपेक्षा सन 2011 में लगभग बलात्कार के दो हजार मामले ज्यादा सामने आये और उसके बाद एक अनुमान के मुताबिक़ सन 2012, 2013, 2014 में भी इसी अनुपात में बलात्कार की अमानवीय दुर्घटनाओं में इजाफा हुआ है |ये तो वो आकडे हैं जो पीड़ित द्वारा पुलिस में शिकायत की जाती है, सोचिए ये आंकड़े इससे भी कही ज्यादा होंगे क्योंकि अभी भी 80% स्त्रियाँ लोकलाज, गरीब, असहाय या अशिक्षित होने के कारण थाने तक पहुँच ही नहीं पाती हैं। हम देखें तो आज नैतिक मूल्यों को खोते हुए भारत में बलात्कार सबसे तेजी से बढ़ता अपराध है जिसमें आकड़ों से स्पष्ट होता है कि जहाँ 1971 में 2487 बलात्कार की घटनायें घटी वहीं 2011 में ये अमानवीय घटनायें बढ़कर 24206 हुई इस तरह 873.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
हर दिन अखबार, समाचार चैनल के माध्यम से सुनने-देखने को मिल रहा है कि आज यहाँ दरिन्दों ने नाबालिग की अस्मत लूटी कल वहां हैवानियत हुई, नित्य प्रति दिन दिल को दहला देनी वाली बलात्कार की घटनायें एवं निडर घूम रहे इन बदन पिपाशुओं पर नियंत्रण कैसे पाया जाये, ये सवाल आज भी ना सिर्फ प्रशासन बल्कि समूचे समाज के लिए चुनौती बना हुआ है | फिर हमारा समाज बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने की बजाए उस विवश पीड़िता को तमाशा बनाकर रख देता है, बड़े दुर्भाग्य की बात है कि वे दरिन्दे जो हैवानियत की सारी सीमा को पार कर जाते हैं, वे हमारे समाज में सिर उठाकर शान से जीते हैं और उसी सभ्यता से भरे संस्कारित समाज में एक विवश पीड़िता अपनी जिन्दगी ख़त्म करने पर मजबूर हो जाती है, दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाला हमारा समाज उसे घ्रणा भरी निगाहों से देखने लगता है, उसे सामाजिक रूप से नकारा जाता है, उसे कदम-कदम पर ताना दिया जाता है, उसे जीने लायक नहीं छोड़ा जाता, कितनी शर्मिंदगी भरी बात है, बहुत दुःख होता है ये सब देखकर-सुनकर | कुछ माह पूर्व एक प्रमुख दल के मुखिया ने अपने बयान में कहा था चार लोग मिलकर एक लड़की का बलात्कार नहीं कर सकते, आखिर कैसे हमारे एक जन प्रतिनिधि इतना घटिया बयान दे सकते हैं, क्या उन्होंने नहीं सुना है, देश में कितने निंदनीय और दर्दनाक बलात्कार की दुर्घटनाएं हो रही हैं, एक उच्चपद में आसीन व्यक्ति जब ऐसे घटिया बयान देगा तो स्वाभाविक है समाज में बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं पर अंकुश लगने की बजाए विकृत मानसिकता को और ज्यादा बल मिलेगा | वहीँ समाज बलात्कार की घटनाओं को लेकर प्रायः दो प्रकार के वैचारिक वर्ग सक्रिय हो जाते हैं- एक तो वे जो महिलाओं पर ही अंकुश लगाने की बात करते हैं और दूसरे वे जो आधुनिकता की आड़ में हर घटना का ठीकरा भारतीय सामाजिक संरचना पर फोड़ने का प्रयास करते हुए पश्चिम के और अधिक उन्मुक्त अनुसरण की वकालत शुरू कर देते हैं । कुछ लोग महिलाओं के छोटे कपड़े पहने को बलात्कार की वजह बताने लगते हैं तो कुछ लोग देर रात तक लड़की के बाहर रहने की वजह बताने लगते हैं और ऐसे ही कई तरह से अपने अपने वक्तव्य देने लगते हैं, लेकिन उस घटना को हम किस तरह परिभाषित करेंगे जब एक पिता द्वारा अपनी ही बेटी का शोषण किया जाता है या फिर एक 4 वर्ष 5 वर्ष की नाबालिक को इस दरिंदगी का शिकार बनाया जाता है | बलात्कार छोटे कपड़ों या महिलाओं की आजादी के कारण नहीं बल्कि विकृत मानसिकता का परिणाम है |
आज तेजी से बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं को समाज के मुख्य धारा का विषय मानकर इसे पूर्ण रूप से रोकने के लिए  हर संभव प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, इसके लिए भारतीय समाज के हर घटक को एक साथ संगठित होकर इसके खिलाफ मजबूती से खड़े होने की आवश्यकता है, महिलाओं की अस्मिता एवं समाज के लिए कलंक बन चुकी इस हैवानियत के विरुद्ध शासन, प्रशासन, समाज, कानून सबको एक साथ सजग होने की जरुरत है ना कि सब अपनी ढपली अपना राग बजाएं | साथ ही तेजी से बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ कठोर से कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है, आरोपी को जेल तक की सजा देने से मामला बनता नहीं दिख रहा तो उन दंड नीतियों पर भी अमल किया जाना चाहिए जिससे बलात्कारी के अंदर सामाजिक प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव उत्पन्न हो और वो समाज के सामने अपने किये पर प्रायश्चित करे, साथ ही रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से बलात्कारी को नपुंसकता की स्थिति में लाने की प्रक्रिया को दंड प्रावधान में शामिल किया जाना चाहिए |
सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्यप्रदेश