आदिकाल का मानव ही हमारे समाज का जन्मदाता है । समाज शब्द "सभ्य मानव जगत" का सूक्ष्म स्वरुप एवं सार है । सभ्य का प्रथम अक्षर 'स' मानव का प्रथम अक्षर 'मा' जगत का प्रथम अक्षर 'ज' इन तीनों प्रथम अक्षरों के सम्मिश्रण से समाज शब्द की उत्पत्ति हुई, जो सभ्य मानव जगत का प्रतिनिधित्व एवं प्रतीकात्मक शब्द है । मानव ही समाज का सच्चा निर्माता उसका स्तम्भ एवं अभिन्न अंग है । एक व्यक्ति ही समाज का सूक्ष्म स्वरुप है और समाज व्यक्तियों का विशाल स्वरुप है, इसी कारण से हम कह सकते हैं कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक तथा विशेष महत्वकांक्षी हैं ।
दो या दो से अधिक व्यक्तियों से मिलकर एक समुदाय बनता है एवं समुदाय से ही समाज का निर्माण होता है, समाज में रहकर ही व्यक्ति अपने विभिन्न तरह के मानवीय क्रिया-कलापों का निर्वाहन करता है | जिनमे सामाजिक सुरक्षा, अनुशासन, आचरण, निर्वाह, सदभाव आदि क्रियाएं होती हैं | समाज व्यक्ति के व्यवहारों एवं कार्यों के प्रक्रम की एक प्रणाली है। किसी भी व्यक्ति की क्रियाएँ चेतन और अवचेतन दोनों स्थितियों में संचालित होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार एवं उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य, जीवन के कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास हेतु किये जाते हैं । उसकी कुछ अनंत एवं असीमित आवश्यकताएँ होती हैं- काम, शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, निवास आदि, इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है और वह खुद को दीन-हीन अतिपिछड़ा, शोषितवर्ग समझने लगता है। वह अकेला बिना समाज के स्वयं इनकी पूर्ति करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने विस्तारित विकासक्रम में मनुष्य ने एक अनुशासित व्यवस्था का निर्माण कर लिया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का एक ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और आदर्श व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों का यह संगठित संकलन उनके कार्यों एवं जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न कार्यप्रणाली को विकसित करता है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।
एक समाज के अन्दर भी व्यक्ति अलग-अलग समुदाय में बटे होते हैं जो एक-दूसरे के समुदाय से कम मेल-जोल रखते हैं, एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय के व्यक्ति से बहुत ही कम अवसर पर संपर्क में रहता हैं, लेकिन इसके बावजूद भी समाज के व्यक्ति एक-दूसरे से अपार स्नेह एवं व्यवहार रखते हुए अलग-अलग रस्मों-रिवाज का निर्वाहन करते हैं | व्यक्ति के जीवन में एक संगठित सभ्य समाज का होना अतिआवश्यक होता है क्योंकि जीवन में स्वस्थ रीतियों-नीतियों को रेखांकित कर उनको संचालन करने तथा हमारी बहुत सी सामूहिक जटिल समस्याओं को सुलझाने एवं उन्हें सरल-सुगम बनाने हेतु एक समाज की आवश्यकता महसूस होती ही है । आपसी-सदभाव, प्रेम एवं सामूहिक एकता बनाये रखने, भाईचारा, शिष्टाचार, एवं अनुशासन कायम करने, आपसी मतभेद मिटाने, अपने उत्तम विचारों के आदान-प्रदान, सार्वजानिक एवं व्यक्तिगत जीवन की उन्नति हेतु, जीवन के समस्त सुसंस्कारों, पर्व-उत्सवों पर सामूहिक रूप से एकत्रित होने के लिए, सुख-दुःख बाटने, हवन-यज्ञ, धार्मिक स्थल, धर्मशाला, औषधालय, विद्यालय, पुस्तकालय, सार्वजनिक स्थल, खेल मैदान व्यामशाला, सभा-भवन आदि के निर्माण एवं रख-रखाव, शुद्ध स्वच्छ एवं स्वस्थ वातावरण बनाने हेतु, सामूहिक प्रयास से नारे, गीत-संगीत, लेख-आलेख, विचार-सुविचार, व्याख्यान, फिल्म-दर्शक, वक्ता-श्रोता, प्रदर्शनी, पत्र-पत्रिका प्रकाशन से समूचे भारत के कोने-कोने में बिखरी मानवजाति को समाज रुपी एकता की माला में पिरोने हेतु प्रबुद्ध व्यक्तियों का एक मंच बनाया गया । समाज में सभ्यता, सद्भावना एवं आदर्श स्थापित करने हेतु संगठन की बड़ी उपयोगिता हो जाती है । एकत्रित एवं संगठित समाज एक चमत्कारिक एवं अद्वितीय शक्ति का उदाहरण है । संगठन की एकता में बड़े से भी बड़ा कार्य करने की अपार क्षमता होती है । हम संगठित होकर समाज की सेवा, उन्नति एवं विकास कार्यों को पूर्णसंल्पना के साथ पूरा कर सकते हैं । तन-मन-धन तीन महाशक्तियों के संगम से समाज का चहुमुखी विकास संभव हो सका है । संगठित होकर ही हम समाज की हर क्षेत्र में निरंतर उपलब्धियों, प्रगति एवं उन्नति के पथ पर अग्रसर रह सकते हैं एवं स्वास्थ चिंतन कर उसे एक नई दिशा-दशा प्रदान कर सकते हैं । समाज में फैले घोर अंधकारमय निर्धनता एवं गरीबी को हम संगठित होकर ही दूर कर पायेंगे । अत: हमें संगठित रहने की परम् आवश्यकता है ।
समाज का कोई मूर्त स्वरुप नही है क्योंकि समाज सिर्फ व्यक्तियों के आपसी संबंधों की एक व्यवस्था है इसकी अवधारणा की कोई सीमा नही है, लेकिन इसके सदस्यों में एक दूसरे के आचार-विचार की विश्वसनीयता होती है। ज्ञान एवं विश्वसनीयता के अभाव में सामाजिक संबंधों का विकास संभव नहीं है। पारस्परिक सहयोग एवं संबंध का आधार समान स्वार्थ होता है। समान स्वार्थ की सिद्धि समान आचरण द्वारा संभव होती है। इस प्रकार का सामूहिक आचरण समाज द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। वर्तमान सामाजिक मान्यताओं की समान लक्ष्यों से संगति के संबंध में सहमति अनिवार्य होती है। यह सहमति पारस्परिक विमर्श तथा सामाजिक प्रतीकों के आत्मीकरण पर आधारित होती है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को यह विश्वास होना चाहिए कि वह जिन सामाजिक मान्यताओं को उचित मानता, उनका पालन करता है और उसमे जीता है, उनका पालन दूसरे भी करते हैं। इस प्रकार की सहमति, विश्वास एवं आचरण सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखते हैं। व्यक्तियों द्वारा सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्थापित विभिन्न संस्थाएँ इस प्रकार कार्य करती हैं, जिससे एक आदर्श इकाई के रूप में समाज का संगठन अप्रभावित रहता है। असहमति की स्थिति व्यक्तियों में एक-दूसरे से एवं अंत:संस्थात्मक संघर्षों को जन्म देती हैं जो समाज के पतन का कारण बन जाते है। यह असहमति या यह माहौल उस स्थिति में पैदा होता है जब व्यक्ति संगठन के साथ आत्मीयता से सम्बन्ध बनाने में असफल रहता है। आत्मीयता के सम्बन्ध एवं समाज के नियमों को स्वीकार करने में विफलता, किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन एवं समुदाय में दूसरे सदस्यों के कारण यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त ध्येय निश्चित हो जाने के पश्चात् अक्सर इस विफलता का कारण बनता है।
सामाजिक संगठन का स्वरूप कभी शाश्वत नहीं बना रहता। समाज अनेकों लक्ष्य की प्राप्ति एवं अनेक व्यवस्था संचालन के लिए अलग-अलग समूहों में विभक्त है। अत: मानव मन और समूह मन की गतिशीलता उसे निरंतर प्रभावित करती रहती है, परिणामस्वरूप समाज परिवर्तनशील होता है। उसकी यह गतिशीलता ही उसके विकास का मूल है। सामाजिक विकास परिवर्तन की एक निरंतर प्रक्रिया है जो सदस्यों की आकांक्षाओं और पुनर्निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में सदैव उन्मुख रहती है। विकास की निरंतरता में सदस्यों का सहयोग, उनकी सहमति और नूतनता से अनुकूल की प्रवृत्ति क्रियाशील रहती है।
समाज का इतना ऋण लदा रहने पर भी समाज के हित के लिए कुछ भी न करना, सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन रहना, किसी संवेदनशील मनुष्य के लिए असंभव है। जो केवल अपनी सोचता है, मानो उसकी मानवीय संवेदना शून्य है। समाज के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं, दायित्व हैं। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों से आप छुटकारा नहीं पा सकेंगे। समाज की उपेक्षा करते रहेंगे, तो फिर आप विश्वास रखिए, समाज आपकी उपेक्षा करेगा और आपको कोई पहचान नहीं मिलेगी, आप सम्मान नहीं पा सकेंगे, आप सहयोग नहीं पा सकेंगे। आप समाज की उपेक्षा करते रहिए अपने आप में सीमाबद्ध हो जाइए, अकेले हो जाइए, अकेले रहिए, खुद ही खाइए और खुद ही मजा उड़ाइए। फिर आप ये भी भूल जाइए। समय आने पर आपको समाज से किसी तरह का सहयोग भी नहीं मिल सकेगा। न ही सम्मान मिल सकेगा । सम्मान और सहयोग ही मनुष्य की जीवात्मा की भूख और प्यास है। अगर आप उनको अर्जित करना चाहते हों तो कृपा करके यह विश्वास कीजिए कि जो समाज के प्रति आपके दायित्व हैं, जो कर्तव्य हैं, वो आपको निभाने चाहिए। आप उन कर्तव्यों और दायित्वों को निभा लेंगे तो बदले में सम्मान और सहयोग अर्जित कर लेंगे। जिससे आपकी खुशी, आपकी प्रशंसा और आपकी प्रगति में चार चाँद लग जायेंगे।
स्वलिखित (कॉपी राइट)
सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
मध्यप्रदेश
दो या दो से अधिक व्यक्तियों से मिलकर एक समुदाय बनता है एवं समुदाय से ही समाज का निर्माण होता है, समाज में रहकर ही व्यक्ति अपने विभिन्न तरह के मानवीय क्रिया-कलापों का निर्वाहन करता है | जिनमे सामाजिक सुरक्षा, अनुशासन, आचरण, निर्वाह, सदभाव आदि क्रियाएं होती हैं | समाज व्यक्ति के व्यवहारों एवं कार्यों के प्रक्रम की एक प्रणाली है। किसी भी व्यक्ति की क्रियाएँ चेतन और अवचेतन दोनों स्थितियों में संचालित होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार एवं उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य, जीवन के कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास हेतु किये जाते हैं । उसकी कुछ अनंत एवं असीमित आवश्यकताएँ होती हैं- काम, शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, निवास आदि, इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है और वह खुद को दीन-हीन अतिपिछड़ा, शोषितवर्ग समझने लगता है। वह अकेला बिना समाज के स्वयं इनकी पूर्ति करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने विस्तारित विकासक्रम में मनुष्य ने एक अनुशासित व्यवस्था का निर्माण कर लिया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का एक ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और आदर्श व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों का यह संगठित संकलन उनके कार्यों एवं जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न कार्यप्रणाली को विकसित करता है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।
एक समाज के अन्दर भी व्यक्ति अलग-अलग समुदाय में बटे होते हैं जो एक-दूसरे के समुदाय से कम मेल-जोल रखते हैं, एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय के व्यक्ति से बहुत ही कम अवसर पर संपर्क में रहता हैं, लेकिन इसके बावजूद भी समाज के व्यक्ति एक-दूसरे से अपार स्नेह एवं व्यवहार रखते हुए अलग-अलग रस्मों-रिवाज का निर्वाहन करते हैं | व्यक्ति के जीवन में एक संगठित सभ्य समाज का होना अतिआवश्यक होता है क्योंकि जीवन में स्वस्थ रीतियों-नीतियों को रेखांकित कर उनको संचालन करने तथा हमारी बहुत सी सामूहिक जटिल समस्याओं को सुलझाने एवं उन्हें सरल-सुगम बनाने हेतु एक समाज की आवश्यकता महसूस होती ही है । आपसी-सदभाव, प्रेम एवं सामूहिक एकता बनाये रखने, भाईचारा, शिष्टाचार, एवं अनुशासन कायम करने, आपसी मतभेद मिटाने, अपने उत्तम विचारों के आदान-प्रदान, सार्वजानिक एवं व्यक्तिगत जीवन की उन्नति हेतु, जीवन के समस्त सुसंस्कारों, पर्व-उत्सवों पर सामूहिक रूप से एकत्रित होने के लिए, सुख-दुःख बाटने, हवन-यज्ञ, धार्मिक स्थल, धर्मशाला, औषधालय, विद्यालय, पुस्तकालय, सार्वजनिक स्थल, खेल मैदान व्यामशाला, सभा-भवन आदि के निर्माण एवं रख-रखाव, शुद्ध स्वच्छ एवं स्वस्थ वातावरण बनाने हेतु, सामूहिक प्रयास से नारे, गीत-संगीत, लेख-आलेख, विचार-सुविचार, व्याख्यान, फिल्म-दर्शक, वक्ता-श्रोता, प्रदर्शनी, पत्र-पत्रिका प्रकाशन से समूचे भारत के कोने-कोने में बिखरी मानवजाति को समाज रुपी एकता की माला में पिरोने हेतु प्रबुद्ध व्यक्तियों का एक मंच बनाया गया । समाज में सभ्यता, सद्भावना एवं आदर्श स्थापित करने हेतु संगठन की बड़ी उपयोगिता हो जाती है । एकत्रित एवं संगठित समाज एक चमत्कारिक एवं अद्वितीय शक्ति का उदाहरण है । संगठन की एकता में बड़े से भी बड़ा कार्य करने की अपार क्षमता होती है । हम संगठित होकर समाज की सेवा, उन्नति एवं विकास कार्यों को पूर्णसंल्पना के साथ पूरा कर सकते हैं । तन-मन-धन तीन महाशक्तियों के संगम से समाज का चहुमुखी विकास संभव हो सका है । संगठित होकर ही हम समाज की हर क्षेत्र में निरंतर उपलब्धियों, प्रगति एवं उन्नति के पथ पर अग्रसर रह सकते हैं एवं स्वास्थ चिंतन कर उसे एक नई दिशा-दशा प्रदान कर सकते हैं । समाज में फैले घोर अंधकारमय निर्धनता एवं गरीबी को हम संगठित होकर ही दूर कर पायेंगे । अत: हमें संगठित रहने की परम् आवश्यकता है ।
समाज का कोई मूर्त स्वरुप नही है क्योंकि समाज सिर्फ व्यक्तियों के आपसी संबंधों की एक व्यवस्था है इसकी अवधारणा की कोई सीमा नही है, लेकिन इसके सदस्यों में एक दूसरे के आचार-विचार की विश्वसनीयता होती है। ज्ञान एवं विश्वसनीयता के अभाव में सामाजिक संबंधों का विकास संभव नहीं है। पारस्परिक सहयोग एवं संबंध का आधार समान स्वार्थ होता है। समान स्वार्थ की सिद्धि समान आचरण द्वारा संभव होती है। इस प्रकार का सामूहिक आचरण समाज द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। वर्तमान सामाजिक मान्यताओं की समान लक्ष्यों से संगति के संबंध में सहमति अनिवार्य होती है। यह सहमति पारस्परिक विमर्श तथा सामाजिक प्रतीकों के आत्मीकरण पर आधारित होती है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को यह विश्वास होना चाहिए कि वह जिन सामाजिक मान्यताओं को उचित मानता, उनका पालन करता है और उसमे जीता है, उनका पालन दूसरे भी करते हैं। इस प्रकार की सहमति, विश्वास एवं आचरण सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखते हैं। व्यक्तियों द्वारा सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्थापित विभिन्न संस्थाएँ इस प्रकार कार्य करती हैं, जिससे एक आदर्श इकाई के रूप में समाज का संगठन अप्रभावित रहता है। असहमति की स्थिति व्यक्तियों में एक-दूसरे से एवं अंत:संस्थात्मक संघर्षों को जन्म देती हैं जो समाज के पतन का कारण बन जाते है। यह असहमति या यह माहौल उस स्थिति में पैदा होता है जब व्यक्ति संगठन के साथ आत्मीयता से सम्बन्ध बनाने में असफल रहता है। आत्मीयता के सम्बन्ध एवं समाज के नियमों को स्वीकार करने में विफलता, किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन एवं समुदाय में दूसरे सदस्यों के कारण यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त ध्येय निश्चित हो जाने के पश्चात् अक्सर इस विफलता का कारण बनता है।
सामाजिक संगठन का स्वरूप कभी शाश्वत नहीं बना रहता। समाज अनेकों लक्ष्य की प्राप्ति एवं अनेक व्यवस्था संचालन के लिए अलग-अलग समूहों में विभक्त है। अत: मानव मन और समूह मन की गतिशीलता उसे निरंतर प्रभावित करती रहती है, परिणामस्वरूप समाज परिवर्तनशील होता है। उसकी यह गतिशीलता ही उसके विकास का मूल है। सामाजिक विकास परिवर्तन की एक निरंतर प्रक्रिया है जो सदस्यों की आकांक्षाओं और पुनर्निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में सदैव उन्मुख रहती है। विकास की निरंतरता में सदस्यों का सहयोग, उनकी सहमति और नूतनता से अनुकूल की प्रवृत्ति क्रियाशील रहती है।
समाज का इतना ऋण लदा रहने पर भी समाज के हित के लिए कुछ भी न करना, सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन रहना, किसी संवेदनशील मनुष्य के लिए असंभव है। जो केवल अपनी सोचता है, मानो उसकी मानवीय संवेदना शून्य है। समाज के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं, दायित्व हैं। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों से आप छुटकारा नहीं पा सकेंगे। समाज की उपेक्षा करते रहेंगे, तो फिर आप विश्वास रखिए, समाज आपकी उपेक्षा करेगा और आपको कोई पहचान नहीं मिलेगी, आप सम्मान नहीं पा सकेंगे, आप सहयोग नहीं पा सकेंगे। आप समाज की उपेक्षा करते रहिए अपने आप में सीमाबद्ध हो जाइए, अकेले हो जाइए, अकेले रहिए, खुद ही खाइए और खुद ही मजा उड़ाइए। फिर आप ये भी भूल जाइए। समय आने पर आपको समाज से किसी तरह का सहयोग भी नहीं मिल सकेगा। न ही सम्मान मिल सकेगा । सम्मान और सहयोग ही मनुष्य की जीवात्मा की भूख और प्यास है। अगर आप उनको अर्जित करना चाहते हों तो कृपा करके यह विश्वास कीजिए कि जो समाज के प्रति आपके दायित्व हैं, जो कर्तव्य हैं, वो आपको निभाने चाहिए। आप उन कर्तव्यों और दायित्वों को निभा लेंगे तो बदले में सम्मान और सहयोग अर्जित कर लेंगे। जिससे आपकी खुशी, आपकी प्रशंसा और आपकी प्रगति में चार चाँद लग जायेंगे।
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सत्यम सिंह बघेल
केवलारी, सिवनी
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